₹250
वैश्वीकरण और प्रौद्योगिकी की आँधी में जब राष्ट्रीय सीमाएँ टूट रही हों, मूल्य अप्रासंगिक बनते जा रहे हों और हमारे रिश्ते हम नहीं, कहीं दूर कोई और बना रहा हो, तो पत्रकारिता के किसी स्वतंत्र अस्तित्व के बारे में आशंकित होना स्वाभाविक है । अखबार और साबुन बेचने में कोई मौलिक अंतर रह पाएगा, या फिर समाचार और विज्ञापन के बीच सीमा- रेखा भी होगी कि नहीं?
अविश्वास, अनास्था और मूल्य- निरपेक्षता के इस संकटकाल में हिंदी भाषा और हिंदी पत्रकारिता से क्या अपेक्षा है और क्या उन उम्मीदों को पूरा करने का सामर्थ्य हिंदी और हिंदी पत्रकारिता में है, जो देश की जनता ने की थीं? इन और ऐसे ही प्रश्नों का उत्तर खोजने के प्रयास में यह पुस्तक लिखी गई । लेकिन यह तलाश कहीं बाजार और विश्व-ग्राम की गलियों, कहीं प्रौद्योगिकी और अर्थ के रिश्तों, कहीं पत्रकारिता की दिशाहीनता और कहीं अंग्रेजी के फैलते साम्राज्य के बीच होते हुए वहाँ पहुँच गई जहाँ हमारे देश-काल और उसमें हमारी भूमिका के बारे में भी कुछ चौंकानेवाले प्रश्न खड़े हो गए हैं ।
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अनुक्रम | |
प्रस्ताव — Pgs. 9 | राष्ट्रीय पत्र — Pgs. 145 |
क्यों और कैसे? — Pgs. 9 | अपनी पहचान — Pgs. 148 |
1. प्रौद्योगिकी, व्यापार और वैश्वीकरण — Pgs. 25 | मौलिक अंतर — Pgs. 151 |
पहला वैश्वीकरण — Pgs. 26 | भाषानुशासन — Pgs. 153 |
अगर आज ईसा होते? — Pgs. 29 | हिंदी दैनिकों का विस्तार — Pgs. 154 |
कॉर्पोरेट दर्शन का आधार — Pgs. 31 | फैलाव मगर गहराई नहीं — Pgs. 156 |
लोगों को छोड़कर — Pgs. 33 | पत्र का व्यक्तित्व — Pgs. 158 |
नई सभ्यता का जन्म — Pgs. 35 | पत्रिकाओं का हृस — Pgs. 166 |
विश्वग्राम क्यों? — Pgs. 37 | टी.वी. और पत्रिका — Pgs. 169 |
आवश्यकता नहीं है, तो पैदा करो — Pgs. 40 | पाठकीय प्रतिबद्धता — Pgs. 171 |
पूँजीवाद का भविष्य — Pgs. 42 | अधूरा अखबार — Pgs. 177 |
पिछड़ों की चिंता — Pgs. 44 | कमी कहाँ है? — Pgs. 178 |
1818 एस-स्ट्रीट — Pgs. 45 | मालिक और पत्रकार — Pgs. 181 |
मैक्सिको का प्रयोग — Pgs. 47 | पत्रकारिता की दुकानें — Pgs. 184 |
लहरों पर तैरती दुनिया — Pgs. 48 | क्या नहीं है? — Pgs. 186 |
वर्चस्ववाद का दर्शन — Pgs. 51 | पाठकों का विकल्प — Pgs. 189 |
तीसरी सभ्यता के साधन — Pgs. 54 | 5. चौराहे से आगे — Pgs. 192 |
चलो, लेकिन जरा हटकर — Pgs. 55 | कठिन डगर है — Pgs. 193 |
तीसरी लहर का नाटकीय प्रयोग — Pgs. 57 | गाँवों की ओर — Pgs. 196 |
जिनका हल नहीं — Pgs. 59 | ट्रस्टीशिप का सिद्धांत — Pgs. 198 |
सूचना-बाजार और माध्यम — Pgs. 61 | इक्कीसवीं शती के प्रश्न — Pgs. 200 |
2. मेरा, उनका, किनका अखबार? — Pgs. 65 | रोजी-रोटी का सवाल — Pgs. 201 |
केवल व्यापार ही नहीं — Pgs. 68 | वैश्वीकरण का स्वभाव — Pgs. 204 |
यह कैसा उद्योग? — Pgs. 70 | नैतिकता का चुनाव — Pgs. 207 |
मालिक के अधिकार — Pgs. 75 | क्या हो? — Pgs. 210 |
सामाजिक और ऐतिहासिक दायित्व — Pgs. 80 | कैसी न हो? — Pgs. 216 |
मालिक और कॉर्पोरेशन — Pgs. 84 | परिशिष्ट |
अपनी-अपनी आजादी — Pgs. 88 | 1. खुल जा सिमसिम, बंद हो जा सिमसिम — Pgs. 225 |
सत्य या प्रिय — Pgs. 91 | 2. भारतीय प्रैस परिषद् — Pgs. 227 |
आचार-संहिता — Pgs. 95 | जवाबी शिकायत — Pgs. 229 |
विकेंद्रीकरण का मिथक — Pgs. 97 | जाँच समिति — Pgs. 230 |
3. भाषा, बाजार और सांस्कृतिक दीनता — Pgs. 100 | पी.यू.सी.एल. का उत्तर — Pgs. 230 |
बाजार की बोली — Pgs. 101 | बी.बी. न्यूज की शिकायत पर दुआ का उत्तर — Pgs. 230 |
भाषा का साम्राज्य — Pgs. 103 | शिकायतों पर जाँच समिति का मत — Pgs. 232 |
उर्दू की राजनीति — Pgs. 105 | दूसरी आपत्तियों पर जाँच समिति — Pgs. 233 |
स्वतंत्र भारत में हिंदी — Pgs. 108 | मामले की सुनवाई — Pgs. 235 |
सरल हिंदी के जटिल संकेत — Pgs. 110 | पी.यू.सी.एल. का बयान — Pgs. 235 |
संवाद के स्तर — Pgs. 112 | एडीटर्स गिल्ड का बयान — Pgs. 235 |
अशोक वाजपेयी की दृष्टि — Pgs. 113 | समिति की रपट — Pgs. 236 |
निर्मल वर्मा का चिंतन — Pgs. 118 | मालिक और संपादक — Pgs. 239 |
यानी हिंदिश — Pgs. 120 | समाचार — Pgs. 239 |
प्रभाष जोशी की चिंता — Pgs. 121 | बी.बी. न्यूज — Pgs. 242 |
सांस्कृतिक ठहराव और राजनीति — Pgs. 125 | परिषद् का फैसला — Pgs. 243 |
अभी हिंदी नहीं — Pgs. 127 | 3. कौन ढोए दादाजी की पोटली? — Pgs. 244 |
तमिल और द्रविड़ — Pgs. 128 | पहचान का संकट — Pgs. 245 |
सोनार बांग्ला — Pgs. 131 | डाउन मार्केट हिंदी — Pgs. 247 |
गुण-दोष सार — Pgs. 133 | काउ ऐंड डॉग — Pgs. 248 |
बाजार में भाषा — Pgs. 135 | अंधी गली का अंत — Pgs. 251 |
काश, हिंदी राजभाषा न होती — Pgs. 136 | 4. आर्य-अनार्य और हिंदी — Pgs. 253 |
अंग्रेजी का रोना क्यों? — Pgs. 137 | विश्व की महान भाषा — Pgs. 258 |
4. कुछ अपनी भी खबर रख — Pgs. 143 | सहायक पुस्तकें — Pgs. 261 |
प्रतिस्पर्धा कहाँ है? — Pgs. 144 |
26 अगस्त, 1937 को जम्मू-कश्मीर के एक सुदूर क्षेत्र में जन्म। श्रीनगर में एम.ए. तक की शिक्षा प्राप्त की।
श्रीनगर के ही एक स्कूल में अध्यापक हो गए। तभी हिंदुस्थान समाचार के श्री बालेश्वर अग्रवाल ने अपनी समाचार समिति में उन्हें एक प्रशिक्षु पत्रकार रख लिया। अगले वर्ष अज्ञेयजी ने अपने नए प्रयोग ‘दिनमान’ के लिए उन्हें चुना। दो दशक तक ‘दिनमान’ के साथ काम करने के पश्चात् ‘जनसत्ता’ दैनिक में श्री प्रभाष जोशी के सहयोगी बने।
80 वर्ष की उम्र में भी उनका लिखना जारी है। उनका मानना है कि जब तक व्यक्ति जीवित है, उसके सोचने पर पूर्ण विराम तो नहीं लगता। सोचने पर नहीं लगता तो कहने-लिखने पर क्यों लगेगा? लिखना जीवन का लक्षण है, उसकी प्रासंगिकता है। अपनी पुस्तक ‘हिंदी पत्रकारिता का बाजार भाव’ में वे लिखते हैं कि पत्रकारिता अब एक ऐसा उद्योग हो गया है, जहाँ प्रमुख संचालक विज्ञापनदाता हो गया है, जो न तो पाठक है, न संपादक और न ही संस्थापक।
उन्हें वर्ष 2016 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया।