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पारिभाषिक शब्दावली याद करने में विद्यार्थी अकसर अरुचि तथा असमर्थता दिखाते हैं। भाषा शिक्षण के बंधन में बँधे होने के कारण अध्यापन में वही परंपरागत विद्या अपनाई जाती रही है। कुछ समय से विशेषण का भाषा में प्रयोग और उसका महत्त्व वाक्यों के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया, जो काफी लोकप्रिय हुआ। अपने माता-पिता से मैंने एक मंत्र सीखा था, ‘नवीन मार्ग की ओर बढ़ने के लिए बंद अर्गला खोल दो। विवादास्पद ही सही, परंतु कहीं तो कुछ सारतत्त्व अवश्य मिलेगा।’ काफी सोच-विचार के उपरांत परंपरागत पारिभाषिक विशेषण को वर्तमान पीढ़ी के समझने योग्य सरलीकृत बनाने का दुस्साहस किया है। विधा कोई भी अपनाई जाए, पर उसके पीछे उद्देश्य एक ही होता है कि भाषा का सौंदर्य/चमत्कार बना रहे। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, किंतु वर्तमान पीढ़ी हिंदी को कितना उबाऊ विषय मानती है, इस ओर ध्यान देना आवश्यक है। विषय कोई भी हो, जब तक वह समझ में नहीं आएगा, तब तक रुचि बढ़ने का संकेत मिलना असंभव है। पुस्तक में विशेषण को प्राणिवाचक और अप्राणिवाचक सिद्ध करने का प्रयास किया गया है।
जन्म : अप्रैल, 1938।
शिक्षा : एम.ए., बी.एड.।
कृतित्व : अनेक शिक्षण एवं सामाजिक संस्थाओं से संबद्ध। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् की परियोजना के लिए शोधकार्य। सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ एजूकेशनल टेक्नोलॉजी के लिए लेखन कार्य। यूनीसेफ से सहायता प्राप्त परियोजना में समाहित-शिक्षण पद्धति के अंतर्गत लेखन कार्य। आकाशवाणी से शैक्षिक वार्त्ताएँ तथा उपग्रह दूरदर्शन से लोकसंगीत गायन। शुभाक्षिका (एन.जी.ओ.) की अध्यक्ष। अब तक लगभग 31 पुस्तकें प्रकाशित। 35 वर्षों तक शिक्षण कार्य।
संपर्क : जी-3, परवाना विहार, सैक्टर-9, रोहिणी, दिल्ली-110085
दूरभाष : 9999766258