₹500
किसी भी समाज की जीवन-दृष्टि और जीवन-मूल्यों से उसके जीवनादर्श बनते हैं। ये जीवनादर्श ही व्यक्ति व समाज के व्यवहार एवं जीवन को निर्देशित एवं नियमित करते हैं और समाज को पहचान भी देते हैं। किसी समाज के जीवन-मूल्य ही यह बताते हैं कि उस समाज का मानव, प्रकृति व विश्व के प्रति क्या दृष्टिकोण है और उस समाज में प्रकृति व मानव के संबंधों का स्वरूप क्या है। ये संबंध ही विश्व की विभिन्न समस्याओं के समाधान की दिशा निर्धारित करते हैं। यदि मानव और प्रकृति में सहयोगी भाव है तो प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन होता रहता है और यदि मानव प्रकृति का अपनी सुख-सुविधा के लिए शोषण करता है तो प्रकृति के समक्ष अस्तित्व का संकट आ खड़ा होता है। आज विश्व के समक्ष उपस्थित हुआ पर्यावरण संकट भी प्रकृति के अंधाधुंध शोषण के कारण ही है। भारतीय दृष्टिकोण प्रकृति के साथ मातृभाव से उसका पोषण और संरक्षण करने का है।
इस पुस्तक ‘भारतीय सांस्कृतिक मूल्य’ में प्रख्यात चिंतक डॉ. बजरंग लाल गुप्ता ने किसी समाज की जीवन-दृष्टि और जीवन-मूल्यों के बारे में विस्तृत व्याख्या की है और बताया है कि किस प्रकार ग्लोबल वार्मिंग की समस्या के समाधान के लिए भारतीय जीवन-दृष्टि महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। उन्होंने इस पुस्तक में समाज की विभिन्न समस्याओं के कारणों और उनके समाधान के विषय में विशद् विवेचन किया है। उन्होंने उन महापुरुषों के जीवन से संबंधित विभिन्न पहलुओं को भी लिपिबद्ध किया है, जिन्होंने समाज को प्रेरित किया और नई दिशा दी।
__________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________
अनुक्रम
पुरोवाक्—5
भूमिका—13
1. हिंदू अर्थचिंतन : दृष्टि एवं दिशा—19
2. वर्तमान अर्थ तंत्र एवं अर्थ चिंतन : एक समीक्षा—54
3. वर्तमान अर्थचिंतन, अर्थव्यवस्था एवं सापेक्ष अर्थशास्त्र—66
4. दीनदयालजी का एकात्म अर्थचिंतन—72
5. एकात्म समाज विज्ञान—86
6. वर्तमान वैश्विक परिदृश्य के संदर्भ में भारतीय मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान—100
7. धारणक्षम विकेंद्रित अर्थव्यवस्था—115
8. धारणक्षम मंगल जीवन-शैली की तलाश—132
9. यह कैसा विकास—149
10. विकास यों अटका, यों भटका : एक विवेचन—155
11. विकास की भारतीय संकल्पना ‘सुमंगलम्’—159
12. उपभोतावाद नहीं, ‘तेन त्यतेन भुञ्जीथा’ है हिंदू दृष्टिकोण—169
13. असफल और असंगत होते जा रहे विकास के वर्तमान प्रतिमान—173
14. धर्मेण धर्माय च धन:—अर्जन एवं वितरण की नैतिक प्रणाली—176
15. पं. दीनदयाल उपाध्याय व एकात्म मानववाद—185
16. विकास की सुदर्शन-संकल्पना—191
17. सहकार-केंद्रित विकास प्रतिमान (आज की आवश्यकता)—196
18. गांधी के विचारों के संदर्भ में भारत की विकास योजनाओं के लिए वैकल्पिक दिशा व राह की तलाश—214
19. स्वावलंबन, स्वतंत्रता एवं स्वदेशी की त्रयी—218
20. हिंदू अर्थचिंतन एवं मातृशति—225
21. उपयुत तकनीकी के चुनाव की कसौटियाँ—230
22. अनर्थकारी अर्थनीतियों के परिवर्तन से ही होगा भारत का कल्याण—235
23. आर्थिक पुनर्रचना का प्रारूप—245
डॉ. बजरंग लाल गुप्ता ने राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से 1966 में अर्थशास्त्र में एम.ए. किया और 1985 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से अपने शोध प्रबंध ‘वैल्यू एंड डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम इन एनशियंट इंडिया’ पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। अनेक वर्षों के अध्यापन के अनुभव के उपरांत 2005 में दिल्ली विश्वविद्यालय के स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज में अर्थशास्त्र के रीडर पद से सेवानिवृत्त हुए।
रचना-संसार : ‘भारत का आर्थिक इतिहास’ हरियाणा साहित्य अकादमी; ‘वैल्यू एंड डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम इन एनशियंट इंडिया’ ज्ञान पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली; ‘हिंदू अर्थ चिंतन’ भारतीय विचार साधना, नागपुर; ‘विकास का नया प्रतिमान : सुमंगलम्’ सुरुचि प्रकाशन, नई दिल्ली; ‘ए न्यू पैराडाइम ऑफ डवलेपमेंट’ ज्ञान पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, अंग्रेजी अनुवाद; ‘सुमंगलम्’ साहित्य संगम, बेंगलुरु, कन्नड़ अनुवाद।
डॉ. बजरंग लाल गुप्ता ने हिंदू आर्थिक चिंतन के आधार पर विकास की जिस नई अवधारणा का प्रतिपादन किया है, उसपर कई विश्वविद्यालयों में शोध कार्य हो रहे हैं। ऐसा ही एक शोधग्रंथ ‘सुमंगलम् एन एनेलेटिकल स्टडी—संपादक प्रो. सुदेश कुमार गर्ग’ हिमाचल विश्वविद्यालय की ‘दीनदयाल उपाध्याय पीठ’ द्वारा प्रकाशित किया गया है।