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मित्र-लाभ, सुहृद्भेद, विग्रह, संधि चार प्रकरणों का संग्रह किया गया है। इसका नाम हितोपदेश है। भागीरथी नदी के तीर पर पाटलिपुत्र नाम का एक शहर था। वहाँ सुदर्शन नाम का राजा राज्य करता था। राजा सुदर्शन सब गुणों से संपन्न था। उस राजा ने किसी व्यक्ति से दो श्लोक सुने।प्रथम श्लोक था—विद्यारूपी नेत्र मनुष्य का वह नेत्र है, जो विविध प्रकार के संदेहों को दूर करता है और भूत तथा भविष्य का दर्शन कराता है। जिसके पास विद्यारूपी नेत्र नहीं है, उसे अंधे के समान ही समझना चाहिए।दूसरा श्लोक था—यौवन, धन-संपत्ति, सत्ता और विवेकहीनता—इनमें से यदि किसी भी मानव में एक दोष भी हो तो वह उस मानव का सत्यानास कर देता है; और जिसमें ये चारों ही दोष विद्यमान हों तो उसके विषय में क्या कहना!इनको सुनकर राजा को अपने राजकुमारों का ध्यान हो आया। राजकुमार न केवल विद्याविहीन थे अपितु वे कुमार्ग पर भी चल पड़े थे। राजा विचार करने लगा—ऐेसे पुत्र से क्या लाभ, जो न तो विद्वान् हो और न ही धार्मिक हो। जिस प्रकार कानी आँख पीड़ा ही देती है, यही दशा ऐसे पुत्र के होने से है।