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फर्न बड़ी मुश्किल से उठा और आगे बढ़ने लगा। तभी भगतसिंहने पीछे मुड़कर उसपर गोली दाग दी। फर्न गोली से नहीं, डर के मारे जमीन पर गिर पड़ा । साहब को देखकर उसके साथी सिपाही वहीं-के-वहीं खड़े रह गए ।
दूसरी गोली दागने के इरादे से भगतसिंह पीछे मुड़़ने ही वाला या कि आजाद ने हुक्म दिया-' ' चलो!''
सुनते ही राजगुरु और भगतसिंह दोनों भागकर कॉजेज के अहाते में घुस गए ।
लेकिन फिर भी एक कांस्टेबल उनका पीछा कर रहा था । उसका नाम था चंदनसिह । साहब की मौत से वह राजभक्त नौकर भड़क उठा था । गोलियों की बौछार करते हुए जान की बाजी लगाकर वह पीछा कर रहा था ।
'' खबरदार! पीछे हटो । '' आजाद ने अपना माउजर पिस्तौल उसपर राइफल की तरह तानकर उसे धमकाया ।
लेकिन वह न रुका, न पीछे हटा ।
भगतसिंह सबसे आगे था और उसके पीछे था राजगुरु-तथा उसके पीछे चंदनसिंह था । लेकिन दौड़कर राजगुरु को पीछे छोड़कर चंदनसिंह आगे बढ़ गया । पता नहीं उसने राजगुरु को क्यों नहीं दबोचा । लेकिन उसका पूरा ध्यान भगतसिंह पर केंद्रित हुआ था ।
बड़ी अजीब तरह की दौड़ थी। आगे भगतसिंह। उसे दबोचने की कोशिश करनेवाला चंदनसिंह और चंदनसिंह को दबोचकर भगतसिंह को बचाने को तत्पर राजगुरु । साक्षात् जीवन-मृत्यु एक-दूसरे का पीछा कर रहे थे । किसकी जीत होगी? किसकी हार होगी?
चंदनसिंह काफी लंबा और मजबूत था । जान की बाजी लगाकर वह पीछा कर रहा था । आखिर वह सफल होने जा रहा था । भगतसिंह के बिलकुल पास पहुंच गया था ।
अब उसे दबोचने ही वाला था कि ' साँय- साँय ' करती एक गोली आकर सीधे उसके पेट में घुस गई। चीखकर धड़ाम से वह जमीन पर गिर पड़ा।
भगतसिंह समझ चुका था कि यह गोली आजादजी की पिस्तौल से चली है; क्योंकि इस प्रकार तीन लोग जब इस तरह से तेज दौड़ रहे हों तब ठीक अपने दुश्मन का ही निशाना साधना सिर्फ उन्हींके वश की बात है।
-इसी पुस्तक से
श्रीमती मृणालिनी मधुसूदन जोशी का जन्म 13 फरवरी, 1927 को अपने ननिहाल में हुआ था । पिता का नाम सखाराम बहुतुले तथा मामाजी का नाम वासुदेव शास्त्री हर्डीकर था । बाल्यावस्था में प्रारंभिक दस वर्ष रत्नागिरि में ही बिताए । इस अवधि में स्वातंत्र्य वीर सावरकर तथा उनके परिवारजनों के साथ इनका अति ' निकट, घरेलू संबंध रहा । इनकी दस से पंद्रह वर्ष तक की अवधि हिंगणा आश्रम में बीती ।
बी.ए.बीटी. की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के पश्चात् वनाधिकारी थी मधुसूदन दिगंबर जोशीजी के साथ इनका विवाह संपन्न हुआ । सौभाग्य से श्री जोशीजी भी सात्त्विक चारित्र्य-संपन्न तथा रचनात्मक कार्यो में इनके सहयोगी थे ।
इनके मामा थी वासुदेव शास्त्री हर्डीकर क्रांतिकारी थे । उनके कारण क्रांतिकारियों के जीवन तथा कार्य के विषय में श्रीमती मृणालिनीजी को विस्तृत जानकारी प्राप्त हुआ करती थी । बाद में स्वातंत्र्य वीर सावरकरजी का समग्र साहित्य मृणालिनीजी ने पढ़ा और क्रांतिकारियों के विषय में जो भी, जितनी भी जानकारी प्राप्त करना संभव था, सब प्राप्त करने का अखंड प्रयास करती रहीं । 'Thus spake Vivekananda' ने तो इनकी मनो- रचना में निर्णायक परिवर्तन ला दिया ।
प्रकाशित कृतियाँ : ' अमृत सिद्धि ', ' अमृता ', ' अवध्य मी, अजिंक्य मी ', ' इनकलाब ', ' जन्म सावित्री ', 'मुक्ताई', 'रक्त कमल ', 'समर्पिता', 'ही ज्योत अंतरीची ' (उपन्यास);' अवलिया ' (दीर्घ कहानी);' आनंद लोक ', ' मृणाल ', ' पहाट ' (कहानी संकलन); ' काया पालट ', ' गृहलक्ष्मी ' (बाल कहानी संकलन);' श्री ज्ञानेश्वरी नित्य पाठ दीपिका' ।