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मराठा शासन का अंत वर्ष 1818 में हुआ, लेकिन उस समय सतपुड़ा के बहादुर भीलों ने अनेक वर्षों तक अंग्रेजों से गुरिल्ला लड़ाई की। सतपुड़ा, सातमाला, अजिंठा के पर्वतों के अनेक भील वीरों ने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया। उनमें सातमाला के भागोजी नाइक, सतपुड़ा के कजरसिंग नाइक, भीमा नाइक और तंट्या भील का संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कुछ स्वर्णिम पृष्ठ हैं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की तरह इन आदिवासी विद्रोहियों का इतिहास भी महत्त्वपूर्ण है। शक्तिशाली ब्रिटिश सत्ता की ग्यारह सालों तक नींद उड़ा देनेवाले तंट्या भील अंग्रेजों की दृष्टि में एक डाकू था; लेकिन सौ साल पहले आदिवासियों व किसानों को साहूकार और जुल्मी सरकार के खिलाफ विद्रोह की प्रेरणा देनेवाला तंट्या असाधारण ही होगा। आदिवासी और किसानों की क्रांति का पहला नायक तंट्या था। उसने सतपुड़ा के दोनों भागों—खानदेश और नर्मदा घाटी—के आदिवासियों और किसानों में राष्ट्रीयता की भावना जगाई।
महाराष्ट्र के लोग अब तक तंट्या को आदिवासी नायक के रूप में नाटक और लोकगीतों के माध्यम से ही जानते थे। इस आसाधारण जननायक के चरित्र का यह लेखन एक प्रकार से इतिहास का ही पुनर्लेखन है।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महत्त्वपूर्ण आदिवासी नायक की असाधारण व प्रेरणाप्रद जीवन-कथा।
जन्म : 1949 में औरंगाबाद (महा.) जिले के एक दूर-दराज देहात में।
शिक्षा : अंग्रेजी साहित्य में एम.ए.।
कुछ बरसों तक अध्यापक रहे। विगत 30 बरसों से प्रकाशन तथा रचनाकर्म से जुडे़ हुए हैं। पहले धारा प्रकाशन, फिर साकेत प्रकाशन प्रा.लि. की ओर से अब तक उन्होंने 1000 से अधिक मराठी पुस्तकों का प्रकाशन किया है। छात्र जीवन में ही स्काउट प्रतिनिधि के रूप में दस यूरोपीय देशों की यात्रा कर ‘लागेबाँधे’ नामक यात्रावृत्त लिखा था। तब से आज तक लगभग 70 बहुचर्चित पुस्तकें प्रकाशित, जिनमें उपन्यास, कहानी संग्रह, यात्रा-वृत्तांत, बाल साहित्य शामिल हैं। रचनाओं की लोकप्रियता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उनके बाल-उपन्यास ‘धर्मा’ का सोलहवाँ संस्करण पिछले वर्ष प्रकाशित हुआ। रचनाओं के लिए अब तक 25 प्रतिष्ठित पुरस्कारों से विभूषित। अकेले ‘दशक्रिया’ उपन्यास आधे दर्जन से अधिक पुरस्कारों से सम्मानित।