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जाति भारत की मिट्टी में से उपजी एक अभिनव संस्था है। एक प्रकार से जाति संस्था भारत का वैशिष्ट्य है। क्या जाति अभी भी प्रासंगिक है? उन्नीसवीं शताब्दी में जब आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के भारत में प्रवेश ने जाति संस्था के पुराने आर्थिक और सामाजिक आधारों को काफी कुछ शिथिल कर दिया था, तब वह जाति संस्था बदलने के बजाय और मजबूत कैसे हो गई? ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपनी जनगणना नीति में जाति को इतना अधिक महत्त्व क्यों दिया? उन्होंने हमारे समाज की सीढ़ीनुमा जाति-व्यवस्था में सवर्ण, मध्यम और दलित वर्गों जैसी कृत्रिम विभाजन रेखाएँ क्यों निर्माण कीं? उनकी इस विभाजन नीति ने भारतीय राजनीति को किस प्रकार प्रभावित किया?
इन्हीं प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए यहाँ एम.सी. राजा और डॉ. अंबेडकर जैसे दलित वर्गों के नेताओं की भूमिका पर प्रकाश डालने की कोशिश की गई है। सन् 1930-31 के गोलमेज सम्मेलनों के बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैक्डानल्ड ने अपने ‘सांप्रदायिक निर्णय’ उसके विरुद्ध राजा-मुंजे पैक्ट, गांधीजी के आमरण अनशन और उसमें से निकले गांधी-अंबेडकर पुणे पैक्ट का वर्णन यहाँ है।
पुणे पैक्ट ने आरक्षण के सिद्धांत को जन्म दिया। किंतु किस प्रकार यह सिद्धांत जाति भेद को मिटाने की अस्थायी व्यवस्था न रहकर वोट राजनीति का एक सशक्त हथियार बन गया, इसका समकालीन चित्रण इस लेख-संग्रह में मिलेगा। इन लेखों का मुख्य स्वर यह है कि जाति भेद की समस्या राजनीति से हल नहीं होगी, उसके लिए चाहिए सामाजिक संकल्प और प्रयास।
जन्म 30 मार्च, 1926 को कस्बा कांठ (मुरादाबाद) उ.प्र. में। सन. 1947 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से बी.एस-सी. पास करके सन् 1960 तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता। सन् 1961 में लखनऊ विश्वविद्यालय से एम. ए. (प्राचीन भारतीय इतिहास) में प्रथम श्रेणी, प्रथम स्थान। सन् 1961-1964 तक शोधकार्य। सन् 1964 से 1991 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज में इतिहास का अध्यापन। रीडर पद से सेवानिवृत्त। सन् 1985-1990 तक राष्ट्रीय अभिलेखागार में ब्रिटिश नीति के विभिन्न पक्षों का गहन अध्ययन। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् के ‘ब्रिटिश जनगणना नीति (1871-1941) का दस्तावेजीकरण’ प्रकल्प के मानद निदेशक। सन् 1942 के भारत छोड़ाा आंदोलन में विद्यालय से छह मास का निष्कासन। सन् 1948 में गाजीपुर जेल और आपातकाल में तिहाड़ जेल में बंदीवास। सन् 1980 से 1994 तक दीनदयाल शोध संस्थान के निदेशक व उपाध्यक्ष। सन् 1948 में ‘चेतना’ साप्ताहिक, वाराणसी में पत्रकारिता का सफर शुरू। सन् 1958 से ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक से सह संपादक, संपादक और स्तंभ लेखक के नाते संबद्ध। सन् 1960 -63 में दैनिक ‘स्वतंत्र भारत’ लखनऊ में उप संपादक। त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘मंथन’ (अंग्रेजी और हिंदी का संपादन)।
विगत पचास वर्षों में पंद्रह सौ से अधिक लेखों का प्रकाशन। अनेक संगोष्ठियों में शोध-पत्रों की प्रस्तुति। ‘संघ : बीज से वृक्ष’, ‘संघ : राजनीति और मीडिया’, ‘जातिविहीन समाज का सपना’, ‘अयोध्या का सच’ और ‘चिरंतन सोमनाथ’ पुस्तकों का लेखन।