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श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय वाड्मय का पवित्र एवं अत्यंत लोकप्रिय ग्रंथ है। विश्व की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है; इसकी अनेक टीका एवं समीक्षाएँ लिखी गई हैं। आदि शंकराचार्य से लेकर विनोबा भावे तक अनेक विद्वानों और संत-महात्माओं ने गीता पर भाष्य लिखे। लोकमान्य तिलक ने गीता को निष्काम कर्मयोग का आधार-ग्रंथ प्रतिपादित किया।
गीता का धर्म कर्तव्य का द्योतक है। इसके अनुसार शरीर, इंद्रिय, मन और बुद्धि सभी के कर्तव्य निश्चित हैं। मानव शरीर जीवात्मा का परिधान मात्र है। इसमें निष्काम कर्म और संपूर्ण समर्पण के साथ परमात्मा की शरण में जाने पर जीवन की मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में आचार की पवित्रता, पाखंड का त्याग, सच्ची निष्ठा, फल की इच्छा न रखते हुए कर्तव्य-पालन तथा अहंकार का त्याग कर उत्कृष्ट नैतिक मूल्यों के अनुपालन का निर्देश दिया गया है।
श्री देवमुनि शुक्ल ने सरस और प्रवाहमय भाषा में इसका पद्यानुवाद करके इसे ‘जीवन-गीता’ का रूप दिया है। आशा है, सुधी पाठक गीता को पद्य रूप में हृदयंगम कर इसके आदर्श गुणों को अपनाकर अपने उद्धार का मार्ग प्रशस्त करेंगे।
जन्म : संवत् 1993 मार्गशीर्ष (दिसंबर 1936), भोजपुर (बिहार)। शिक्षा : राजनीति विज्ञान और इतिहास में स्नातकोत्तर, मगध विश्वविद्यालय, बोध गया से पी-एच.डी.। 1998 में हजारीबाग विश्वविद्यालय से विभागाध्यक्ष (राजनीति विज्ञान) पद से सेवानिवृत्ति। कृतित्व : ‘आदमी का गणित’, ‘ठहरे हुए क्षण’, ‘प्यार की वेला’ (काव्य संग्रह) तथा पत्र-पत्रिकाओं में गद्य और पद्य में रचनाएँ प्रकाशित; आकाशवाणी हजारीबाग से कविता पाठ।