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क्या पारिवारिक जिम्मेदारियों से बँधा एक सामान्य व्यक्ति निर्वाण या बुद्धत्व (बोध) प्राप्त कर सकता है?
अपने कार्य-व्यवसाय में व्यस्त किसी व्यक्ति के लिए महत्त्वाकांक्षाओं की आध्यात्मिक सीमा क्या होनी चाहिए? क्या नकारात्मक भाव अलग-अलग रूपों में सामने आते हैं?
अपने चारों ओर होनेवाले मानवीय अन्याय का सामना करते हुए आप सकारात्मक कैसे बने रह सकते हैं?
इस तरह के अनेक प्रश्नों के उत्तर परम पावन दलाई लामा द्वारा इस पुस्तक में दिए गए हैं। वर्तमान पीढ़ी हेतु भगवान् बुद्ध के ज्ञान और उपदेशों की प्रासंगिकता बताते हुए उन्होंने अपनी अंतश्चेतना को जाग्रत् और विकसित करने के लिए नकारात्मक भावों पर विजय पाने की आवश्यकता तथा आत्मानुभूति के मार्ग के बारे में बताया है। जीवन के विभिन्न पक्षों का ज्ञान रखनेवाले और स्वभाव से सहृदय, व्यवहारशील दलाई लामा ने ऐसे कई विषयों व समस्याओं पर महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए हैं, जो एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में प्राय: देखने में आती हैं—संकीर्ण मानसिकता से उत्पन्न लोभ और भावनात्मक पीड़ा से स्वयं को कैसे बचाएँ? विषाद और निराशा को संतोष में कैसे बदलें? आज के इस मुश्किल भरे समय में विभिन्न धर्मों-मतों में सामंजस्य कैसे बनाए रखें?
अपनी तरह की सर्वोत्तम रचना के रूप में यह पुस्तक ‘जीवन जीने की कला’ हमें दलाई लामा की दार्शनिक शिक्षाओं से अवगत कराती हुई वास्तविक मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है।
परम पावन तेंजिन ग्यात्सो तिब्बत के चौदहवें दलाई लामा हैं । इनका जन्म 6 जुलाई, 1935 को तिब्बत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में ' तसकर ' नामक छोटे. से गाँव में हुआ था । दो वर्ष की आयु में इन्हें तेरहवें दलाई लामा के अवतार के रूप में स्वीकार किया गया था । 1940 में इन्हें विधिवत् पिछले दलाई लामा का उत्तराधिकारी माना गया । पंद्रह वर्ष की आयु में इन्हें तिब्बत सरकार का प्रमुख बना दिया गया । इन्होंने चीन- तिब्बत समस्या को सुलझाने के भरसक प्रयास किए, परंतु इनके प्रयास निष्फल रहे । 10 मार्च, 1959 को तिब्बत में विद्रोह के कुचल दिए जाने पर परम पावन को तिब्बत छोड़ भारत में शरण लेनी पड़ी ।
इन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं । इन्हें कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं । 1989 में इन्हें शांति का ' नोबेल पुरस्कार ' भी दिया गया ।