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मैं उनकी निगाहों में जीवन का नाप-तौल देख रही थी। क्या कहीं कोई लगाव, मोह, आसक्ति बची है? इतनी पीड़ा के बाद प्राण कहीं अटके हुए हैं। जब भी आंटी की बेचैनी बढ़ती, आंटी पापा-मम्मी को बुला भेजतीं—और मम्मी-पापा का हाथ कसकर पकड़े रहतीं। पापा मन बहलाने के लिए मजाक करते या उनका मनोबल बढ़ाते तो आंटी बस मुसकराकर रह जातीं। डॉक्टर, हकीम, वैद्य सब जवाब दे चुके हैं। आंटी की तड़प जब घर के लोगों से देखी नहीं गई तो उन्हें अस्पताल में रखा गया। मम्मी बार-बार उनसे पूछतीं, ‘प्रीति, मन कहाँ अटक गया है? सेवा कर रहे बेटे-बेटी का जीवन बीच जंगल में खड़ी रेलगाड़ी की तरह ठहर गया है। भाई साहब जा ही चुके हैं। कौन सा ऐसा सूत्र है जिसे तुम छोड़ नहीं पा रही हो?’
उत्तर में आंटी अपने निरीह, भोले-भाले बेटे आनंद की ओर देखतीं, जो धन-लोलुप भेड़ियों के बीच खड़ा है। आंटी का होना मानो आनंद के लिए ढाल है। चूँकि संपत्ति आंटी के नाम है, अत: कोई कुछ कर नहीं सकता है। यदि वे चली गईं तो बेटे को तो लोग जीते-जी मार देंगे। न पत्नी इसकी, न ही बेटा पास और माँ भी चली गई तो?...
—इसी पुस्तक से
अमेरिका में रह रहे भारतवंशियों की सामाजिक व्यथा-कथा का ऐसा मार्मिक प्रस्तुतीकरण, जो भुलाए न भूले। वहाँ की पारिवारिक-सामाजिक विसंगतियों व विद्रूपताओं को दरशाती हृदयस्पर्शी कहानियाँ।
रेणु ‘राजवंशी’ गुप्ता
जन्म : 20 अक्तूबर, 1957 को कोटा (राजस्थान) में।
शिक्षा : एम.ए. (अंग्रेजी), बी.ए. ऑनर्स (संस्कृत)।
कार्यक्षेत्र : व्यवसाय एवं साहित्य-लेखन। अनेक वर्षों तक कंप्यूटर साइंस का अध्यापन करने के पश्चात् अपने व्यवसाय में व्यस्त। जहाँ व्यवसाय उनके बाह्य जीवन को चलाए रखता है वहीं साहित्य, लेखन और स्वाध्याय आंतरिक जीवन को गतिशील रखता है। भटकन, उद्विग्नता, व्याकुलता और जीवन-मूल्यों की खोज को वह अपनी शक्ति मानती हैं।
कृतियाँ : ‘प्रवासी स्वर’ (काव्य-संग्रह); ‘कौन कितना निकट’, ‘जीवन लीला’ (कहानी-संग्रह)।
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