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जून की तपती दोपहरी में नंगे नन्हे पैर जब ट्रेन की पटरियों के किनारे पड़े गरम पत्थरों पर चिलचिलाती धूप में जिला कारागार तक अपने पिता से मिलने उछलते चले जाते हैं तो आपातकाल की छुपी हुई अकथ भोगी हुई कहानी बूँद-बूँद स्मृतियों में आ जाती है।
‘झुकना मत’ उपन्यास न केवल काल और कला की दृष्टि से वरन् लोक-अनुभूति, लोक-अभिव्यति, लोक-समर्पण, लोक-आकांक्षा, लोक-उत्कंठा, लोक-तंत्र व लोक-प्रस्फुटन की दृष्टि से लोक-जीवन की उत्सर्ग गाथा है। वहीं प्रेम की अजस्र-धार भी है।
भाव-जगत् का यह उपन्यास ऐतिहासिक नहीं कहा जा सकता। पात्रों का, घटनाओं का उल्लेख समाज-जीवन के अनुरूप प्रभावोत्पादन की दृष्टि से मिलता है, इसलिए इसे किसी विशेष व्यति से जोड़कर देखना हितकारी नहीं है। शदों के बीच बहुत कुछ छिपा पड़ा है। सही आकलन तो सुधी-पाठक ही करेंगे।
22 सितंबर, 1935 को ग्राम नगला हूशा, जिला फर्रुखाबाद में जनमे विधि-स्नातक डॉ. ब्रह्मदत्त अवस्थी भारतीय महाविद्यालय फर्रुखाबाद में प्राचार्य रहे। भूगोल तथा हिंदी विषय में स्नातकोत्तर उपाधि प्रयाग व कानपुर विश्वविद्यालय से प्राप्त कीं। माता स्व.श्रीमती रामश्री अवस्थी व पिता स्व.श्री मुंशीलाल अवस्थी के मूल्यों को आत्मसात् कर इन्होंने ‘स्वातंत्र्योत्तर हिंदी नाटकों में लोकतांत्रिक मूल्य’शीर्षक पर अपना शोध-ग्रंथ प्रस्तुत किया। 1975 के आपातकाल में मीसा-बंदी रहे। सन् 1946 से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में विभिन्न दायित्वों का निर्वाह करते रहे हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्यायजी के मार्गदर्शन में डॉ.राममनोहर लोहियाजी के चुनाव संयोजक रहे। उनके मौलिक विचारों से द्वितीय सरसंघचालक परम पूज्य श्रीगुरुजी ने भी अपनी सहमति जताई। उनकी अगणित कृतियों में उनका चिंतन, उनकी अभिव्यक्ति, उनके रंग सूर्य की रश्मियों से उतरे हैं। उनके आचरण और कर्म का हिमालयी शिखर उनके लेखन से कहीं अधिक धवल और विशाल है। ‘राष्ट्र-हंता राजनीति’,‘जाग उठो’ व ‘विश्व-शक्ति भारत’ उनकी अप्रतिम कृतियाँ हैं।