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कृष्णलाल और निर्भयानंद नाव से प्रतिमा लाने चल पड़े। उन दोनों के साथ कई और लोग भी थे। ठाकुर-घर की निचली मंजिल में देवी माँ की मूर्ति लाकर रखते ही मूसलधार बारिश शुरू हो गई।
ठाकुर-प्रांगण में तानपूरा की मूर्च्छना झंकृत हो उठी। स्वामीजी गा रहे थे—
“काली नाम में इतने गुन, भला कौन जान पाए
तभी देवाधिदेव महादेव,
पंचमुख उनके गुन गाए।”
स्वामीजी बिलकुल गंगा-तट पर बेल के पेड़ तले बैठे-बैठे गाते रहे—“बिल्व वृक्षमूल में करूँ उद्बोधन, गणेश-कल्याण से गौरी का आगमन।...”
पष्ठी के दिन माँ बागबाजार से बेलूर आ पहुँची। उसी दिन साँझ को एक बड़े पेड़ के नीचे अधिवास-पूजा आयोजित हुई। पूजा का संकल्प माँ के ही नाम पर हुआ।
स्वामीजी ने कहा, “हम लोग तो कोपीनधारी हैं, हमारे नाम से नहीं होगा।”
—इसी पुस्तक से
भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद के प्रखर उद्घोषक, ‘नर-सेवा ही नारायण-सेवा’ को अपने जीवन का ध्येय माननेवाले, जन-जन के प्रेरणापुंज स्वामी विवेकानंद के जीवन-प्रसंगों को नवीन रूप में व्याख्यायित करनेवाली अत्यंत प्रेरक एवं पठनीय पुस्तक।
जन्म : 4 दिसंबर, 1971।
शिक्षा : विज्ञान में स्नातक, पत्रकारिता और जनसंचार में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा, फिल्म एवं प्रकाश का भी अध्ययन। कृतित्व : पहली नौकरी हिंदुस्तान टाइम्स के वितरण विभाग में, फिर अनेक समाचार-पत्रों के विज्ञापन विभाग में भी काम किया। ‘आनंदबाजार पत्रिका’ के रिपोर्टर के रूप में शुरुआत; रूपकला केंद्र के विकास संचार विभाग में गेस्ट लेक्चरर भी रहे। विज्ञापन व्यवसाय से भी जुड़े हैं।
‘आनंदबाजार पत्रिका’ के रविवासरीय पृष्ठ आनंदमाला और शुक्रतारा में बच्चों के लिए कहानियाँ लिखीं। ‘हावड़ार सॉन्ग-एखोन ओ तोखोन’, ‘आनंदा तुमी स्वामी’ अनेक पुस्तकें प्रकाशित।