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वैसे तो एक दार्शनिक प्रश्न के अनेक जवाब हो सकते थे। विज्ञान एवं दर्शन में यही तो अंतर है। दर्शनशास्त्र में कहीं दो-दो चार
ही होते हैं तो कहीं पाँच भी हो सकते हैं या
मात्र तीन।
जब टाँगें कटी हों तो अन्य अंगों की सुडौलता की क्या जरूरत। आने-जानेवालों की निगाहें तो अभावग्रस्त स्थान से ही जा टकराएँगी।
स्त्रियों को आदर्श का नशा चढ़ जाए तो वे पुरुषों से कई कदम आगे बढ़ जाती हैं।
एक के लिए जीने से बेहतर है अनेक के लिए जीना।
जो जहाँ जिस रूप में है, आकाश उसे वैसा ही दिखता है; उतना ही दिखता है। उसके लिए उतना ही भर आकाश उसका होता है।
ईश्वर ने रोने की शक्ति देकर वरदान ही तो दिया है मनुष्य को। आँखों को धोकर साफ-सुथरा करनेवाला अश्रु। स्रोत अंदर न होता तो मनुष्य की आँखों में कितना कचरा इकट्ठा हो गया होता, उसकी दृष्टि ही चली गई होती।
नारी चाहे कितनी ही कम उम्र की हो, पुरुषों को समझने में दक्ष होती है। इसीलिए तो सेवा-काम स्त्रियों के जिम्मे दिया जाता है।
—इसी पुस्तक से
दिव्यांग-जीवन का दिग्दर्शन कराता मर्मस्पर्शी, मानवीय संवेदना से भरपूर भावनात्मक उपन्यास।
मृदुला सिन्हा
27 नवंबर, 1942 (विवाह पंचमी), छपरा गाँव (बिहार) के एक मध्यम परिवार में जन्म। गाँव के प्रथम शिक्षित पिता की अंतिम संतान। बड़ों की गोद और कंधों से उतरकर पिताजी के टमटम, रिक्शा पर सवारी, आठ वर्ष की उम्र में छात्रावासीय विद्यालय में प्रवेश। 16 वर्ष की आयु में ससुराल पहुँचकर बैलगाड़ी से यात्रा, पति के मंत्री बनने पर 1971 में पहली बार हवाई जहाज की सवारी। 1964 से लेखन प्रारंभ। 1956-57 से प्रारंभ हुई लेखनी की यात्रा कभी रुकती, कभी थमती रही। 1977 में पहली कहानी कादंबिनी' पत्रिका में छपी। तब से लेखनी भी सक्रिय हो गई। विभिन्न विधाओं में लिखती रहीं। गाँव-गरीब की कहानियाँ हैं तो राजघरानों की भी। रधिया की कहानी है तो रजिया और मैरी की भी। लेखनी ने सीता, सावित्री, मंदोदरी के जीवन को खंगाला है, उनमें से आधुनिक बेटियों के लिए जीवन-संबल हूँढ़ा है तो जल, थल और नभ पर पाँव रख रही आज की ओजस्विनियों की गाथाएँ भी हैं।
लोकसंस्कारों और लोकसाहित्य में स्त्री की शक्ति-सामर्थ्य ढूँढ़ती लेखनी उनमें भारतीय संस्कृति के अथाह सूत्र पाकर धन्य-धन्य हुई है। लेखिका अपनी जीवन-यात्रा पगडंडी से प्रारंभ करके आज गोवा के राजभवन में पहुँची हैं।