₹300
‘‘भावना, तुम्हारा फोन।’’
भावना उस समय कॉलेज जाने के लिए साड़ी पहन रही थी, उसने आश्चर्य से पूछा, ‘‘किस का फोन है?’’
‘‘तुम्हारे किसी विद्यार्थी।’’ मिस्टर अजवाणी ने उत्तर दिया।
भावना ने शीघ्रता से साड़ी पहनी, टेलीफोन का रिसीवर उठाया, ‘‘हैलो।’’
‘‘दीदी!’’ स्वर में घबराहट थी।
‘‘कहो अरुणा।’’
‘‘दीदी, क्या आप नाटक में भाग नहीं लेंगी?’’
‘‘किसने कहा तुम्हें?’’ भावना ने पूछा।
‘‘आपके पति, राजाणी अंकल को कह रहे थे।’’
‘‘यह हो नहीं सकता।’’
‘‘सच दीदी, कल रात ही राजाणी अंकल आपके घर आए थे, आप सोई हुई थीं। मिस्टर अजवाणी ने उससे कहा कि आपकी तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए उन्होंने उसको आपसे मिलने नहीं दिया और उससे यह भी कहा कि आप नाटक में भाग नहीं लेंगी और उन्होंने राजाणी अंकल को आप से मिलने के लिए भी मना कर दिया है।’’
—इसी संग्रह से
मानवीय संबंधों पर केंद्रित ये कहानियाँ और उनका कथानक पाठकों को अपने बीच का ही लगेगा। ये पठनीय कहानियाँ आज के भागमभाग वाले जीवन में सुकून देंगी, शीतलता का अहसास देंगी।
_____________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________
अनुक्रम
भूमिका : मेरी साहित्यिक यात्रा — Pg. 5
1. कभी बसंत, कभी पतझड़ — Pg. 19
2. भुलाए नहीं भूलते — Pg. 27
3. सिस्टर फिलोरीना — Pg. 40
4. गाँठ — Pg. 49
5. बंजर जमीन — Pg. 56
6. भावना — Pg. 62
7. संबंध — Pg. 72
8. जीवन-मूल्य — Pg. 80
9. मंजिल! — Pg. 87
10. आज की सीता — Pg. 96
11. राय साहब — Pg. 105
12. नई टीचर — Pg. 112
13. और हम...! — Pg. 118
14. उड़ान — Pg. 125
15. अर्धसुप्त और अर्धजाग्रत् मन — Pg. 135
16. मकड़ी — Pg. 142
17. फूल मुरझा गया — Pg. 150
18. दर्द — Pg. 155
19. पीछा करनेवाली नजरें — Pg. 161
6 जुलाई, 1930 को हैदराबाद सिंध (पाकिस्तान) में एक उच्च मध्यम वर्गीय जमींदार परिवार में जनमी तारा मीरचंदाणी सिंधी की प्रसिद्ध लेखिका हैं, जिनकी रचनाओं का पाठकों ने अपूर्व उत्साह के साथ स्वागत किया है। बाल्यकाल से ही वे लिखने-पढ़ने के कार्यों में रुचि लेती रहीं। छात्र जीवन में ही उन्हें ‘विद्यार्थी’ नामक सिंधी साप्ताहिक के संपादन का दायित्व मिला, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया।
विभाजन से उपजी भयंकर त्रासदी का शिकार ताराजी भी हुईं और सबकुछ छोड़कर भारत आ गईं। वे सुबह विद्याध्ययन करतीं और फिर एक कार्यालय में काम करतीं। इसी क्रम में वे सिंधी साहित्य मंडल से जुड़कर लेखन की ओर प्रवृत्त हुईं। उनकी पहली कहानी ‘सुर्ग जो सैर’ प्रकाशित हुई। उसके बाद से उनके लेखन का क्रम निरंतर जारी है। उनकी रचनाओं में समाज के विभिन्न पक्षों का दिग्दर्शन होता है। उनकी लेखनी में मानवीय संवदेना, जीवन-मूल्यों और सामाजिक विडंबनाओं पर अंतर्दृष्टि स्पष्ट झलकती है।
सन् 1993 में उन्हें उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘हठयोगी’ के लिए प्रतिष्ठित साहित्य अकादेमी सम्मान से विभूषित किया गया। अस्सी वर्ष की अवस्था में भी ताराजी लेखन में सक्रिय हैं। उनकी अनेक रचनाओं का हिंदी, मराठी व गुजराती में अनुवाद हो चुका है।