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यह नियति ही है
जिसे भोगना है
सोचती हूँ हँसकर झेलूँ
पर जब भी ये सोचती हूँ रो पड़ती हूँ
भरे गले से तुम्हारा नाम लेना चाहती हूँ
तुम्हें कृतज्ञता के दो शब्द कहना चाहती हूँ।
कितना तो हमें कहना-सुनना है
कह-सुन भी लेंगे
इर्द-गिर्द के लोगों की दृष्टि में हम मौन हैं
सिर्फ बरसों बाद मिले अपरिचितों की भाँति।
देखते-देखते
नीले आकाश में बादल
रुई के फाहे-से छा गए हैं
एकाएक सफेद परोंवाले पक्षी
अपने पंख फड़फड़ा के उड़ने लगे हैं
मैं दुबककर तुम में और समा जाती हूँ
अपने बसेरे में, चिडि़या-सी!
बस यों ही जीना सीख लिया है
अपने काँधों पर अपने ही अस्थिकलशों को
ढोना शुरू कर दिया है।
—इसी संग्रह से
बचपन में ही माँ के साए से संचित हो गई एक बालिका के मनोभावों का संकलन है यह पुस्तक। पिता की स्नेहिल छाँव और ममत्व से जिसका पालन हुआ, उस बालिका की आशा-उत्कंठाओं का संकलन है यह पुस्तक। ईश्वर सबकुछ ले ले, पर माता-पिता के साए से वंचित न करे क्योंकि वही दुनिया का सबसे सुरक्षित कवच होते हैं—यह प्रार्थना करनेवाली बालिका की ‘कही-अनकही’ भावनाओं का संकलन है यह पुस्तक।
नंदिता शुक्ला भास्कर
जन्म : 25 जनवरी, 1965 को कानपुर (उ.प्र.) में।
शिक्षा : फाइन आर्ट्स में पी. एच-डी.।
अपनी कलाकृतियों एवं कविताओं पर ‘कही-अनकही’ पहली पुस्तक है। प्रतिलिपि में अतीत के संस्मरणों में ‘सात फेरे’, ‘पुराने घर वाली बुआ’ एवं ‘ठहरे पल’ काफी पसंद किए गए हैं।
संपर्क : 7408827733,9415468128