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रत उत्सवों का देश है। किसी का जन्म हो तो उत्सव, जन्म के एक साल बाद फिर जन्मोत्सव। आजकल जन्मदिन मनाने का बड़ा चलन है। पहले दिन पाठशाला जाने पर कई परिवार अक्षरोत्सव मनाते हैं। वसंतोत्सव भी मनता है। होली, दीवाली, दशहरा की बात ही छोडि़ए। ये सारे तो बड़े-बड़े उत्सव हैं ही। इन वर्षों में इश्कोत्सव भी मनाया जाता है। ‘वेलेंटाइन-डे’ को लेकर बड़े शहरों के बाजारों में बड़ा जोश दिखाई देता है। विवाहोत्सव की तो बात ही छोडि़ए। यह वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक उत्सव तो है ही, इससे भी कहीं बढ़कर है, क्योंकि यह आर्थिक उत्सव भी है। इस पर सैकड़ों उद्योग पलते हैं।
बस एक उत्सव नहीं है, वह है मरणोत्सव। मगर सोचता हूँ—यह मरणोत्सव अभी तक उत्सव क्यों नहीं बना? बाजार का ध्यान इस तरफ क्यों नहीं गया? कुछ पश्चिमी और पूर्वी देशों में बाजार इस तरफ ध्यान दे रहा है। यह तो आपको मालूम ही है कि बाजार लग जाए तो क्या नहीं हो सकता? यह जो जीवन बीमा है, इसके बारे में सोचकर देखिए। अरबों-खरबों रुपए का यह व्यापार मृत्यु की आशंका पर ही टिका है। मृत्यु के आसपास अन्य उद्योग भी चल सकते हैं। शादी से तो फिर भी कुछ लोग बच निकलते हैं, मगर मरने से तो कोई बच ही नहीं सकता, अर्थात् इसका बाजार सबसे बड़ा है।
—इसी संग्रह से
प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री दीनानाथ मिश्र को अपनी विशिष्ट चुटीली शैली में समाज में व्याप्त कुरीतियों-अव्यवस्थाओं पर मारक प्रहार करने की अद्भुत क्षमता थी। यह संग्रह ऐसे ही धारदार व्यंग्यों का संकलन है।
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अनुक्रम | |
1. एक ही साधे सब सधे — 9 | 48. जाकी रही भावना जैसी — 105 |
2. ‘भू-माफिया’ का वात्सल्य — 11 | 49. श्वान का मीडिया प्रवेश — 107 |
3. दर्दे सर और मालिश घुटने की — 13 | 50. मुंबई ‘भेड़ बाजार’ — 109 |
4. करोड़पति को ‘लॉक’ कर दिया जाए — 15 | 51. कुछ भी बिक सकता है — 111 |
5. गरीबी हटाने की सरल विधियाँ — 17 | 52. धोखा-पंडित अर्जुन देव — 113 |
6. अँधेरा हटाओ-यानी क्या — 19 | 53. कुछ ले-देकर — 115 |
7. विवाह केंद्रित जीवन — 21 | 54. गोपनीयता गायब — 117 |
8. कैसा होता है यूरंडपंथी? — 23 | 55. आंदोलनकारी सरकार — 119 |
9. मूढ़मति कौन है? — 25 | 56. समाचार गंध : लक्ष्मी गंध — 121 |
10. ताकि पाटकर कोई घात न करे — 28 | 57. टी. वी. तट पर क्रिकेट — 123 |
11. सकर्मक सहिष्णुता — 30 | 58. नया ब्रह्मास्त्र — 125 |
12. भुवन सुंदरियों का देश — 32 | 59. अटलजी ने ‘जुर्म कबूल किया’ — 127 |
13. वेतनभत्ते पर रहम करो — 34 | 60. ऊपर छुट्टी, नीचे छुट्टी — 129 |
14. मजाक बन गए बनानेवाले — 36 | 61. लालू का रैला — 131 |
15. पार्ट टाइम एजेंट — 38 | 62. हर विषय में अंडा — 133 |
16. कसाई कम्युनिस्ट नहीं होते — 40 | 63. अगर लड़कियाँ बाजी मारती रहीं — 135 |
17. महाकुंभ के घाटन पर भई कैमरन की भीड़ — 42 | 64. बेजोड़ सत्याग्रह — 137 |
18. संकट मोचन के अवतार — 44 | 65. कैमरे का झूठ — 140 |
19. भूकंप-पर्यटन — 46 | 66. पुलिसजन की तोंद-तपस्या — 142 |
20. भूकंप राहत और बिच्छू कथा — 48 | 67. आंदोलन का टिकाऊ निशाना — 144 |
21. तालिबानियत से भरा इतिहास — 50 | 68. शिखर कथा के पीछे क्या है? — 146 |
22. चाहे जैसे बेचो, मगर बेचो — 53 | 69. कैडबरी और कोला को बधाई! — 148 |
23. चंडूखाना संवाददाता — 55 | 70. मीडिया माता की आरती — 150 |
24. ज्योतिष विरोध — 57 | 71. मनोरंजन उद्योग — 152 |
25. सोनिया युद्ध का कारण — 59 | 72. जाम-ही-जाम — 154 |
26. जयललिता के ‘प्रकाश’ में जॉर्ज — 61 | 73. विदाई समारोह की मजबूरी — 156 |
27. संतोष का बाजार भाव — 63 | 74. घमासान बहस — 158 |
28. सरकारी से स्वरोजगार तक — 65 | 75. वाह! क्या इरादे हैं अमेरिका के — 160 |
29. तो शिष्य सभ्यताओं का क्या होगा? — 67 | 76. बेचारे कश्मेरिया के मारे — 162 |
30. तो पुलिस से कौन बचाए? — 69 | 77. कालिदास की तरह है बिहार — 164 |
31. जनाब मुशर्रफ. . . ! — 71 | 78. एक अजूबा फैसला — 167 |
32. जयललिता मुशर्रफ को मारन बना देती — 73 | 79. ये चमन यूँ ही रहेगा — 169 |
33. पाकिस्तान का सबसे बड़ा सच — 75 | 80. आंदोलन की शान में गुस्ताखी — 171 |
34. चाय पार्टी का चक्कर — 77 | 81. मुँह दिखाई में माँगे हिंदुस्थान — 173 |
35. स्वर्ण मुहूर्त — 79 | 82. ‘निकास चुनाव’ की हकीकत — 175 |
36. देशनिरपेक्ष शीर्षक — 81 | 83. खटके लियांदा संविधान — 177 |
37. क्षमाप्रार्थी हूँ, त्रिलोचनजी — 83 | 84. पहला मनोरंजक चुनाव — 179 |
38. अंतिम बाजार — 85 | 85. गलती महात्मा गांधी की थी — 181 |
39. राजनीति के शौकीन हैं लिंग्दोह — 87 | 86. चापलूसों की महात्मा गांधी — 183 |
40. चेले गुरुओं को अंक देंगे — 89 | 87. मनमोहक नैतिकता — 185 |
41. काम नहीं तो दाम नहीं — 91 | 88. सोनिया संकीर्तन मंडली — 188 |
42. ‘पैकिंग’ का कमाल — 93 | 89. मार्क्सवादी पार्टी : कामयाब भुखमरी — 190 |
43. तौबा यह रिमोट — 95 | 90. सरकार के ये हंकवारे — 192 |
44. धोती-विकास-दर — 97 | 91. फिर लीग का बिसमिल्लाह — 194 |
45. आतंकवाद और अचार — 99 | 92. बेटिकटों की चाँदी — 196 |
46. फर्जी शंकराचार्य — 101 | 93. साड़ी पूजन क्यों नहीं? — 198 |
47. लक्मे के महीने — 103 |
जन्म : 14 सितंबर, 1937, जोधपुर।
शिक्षा : एम. ए. (गोल्ड मैडल)।
श्री मिश्र पत्रकारिता के क्षेत्र में सन् 1962 में ही आ गए थे। सन् 1967 से लेकर 1974 तक वह ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक के साथ दिल्ली में रहे। पहले सहायक संपादक और अंतिम तीन वर्ष प्रधान संपादन। आपातकाल में वह जेल में रहे। ‘नवभारत टाइम्स’ में डेढ़ दशक तक ब्यूरो चीफ और स्थानीय संपादक आदि रहे। सन् 1 9 9 1 से लेकर अब तक वह स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय रहे हैं। इस बीच उनके कॉलम देश के पच्चीस समाचारपत्रों में प्रकाशित होते रहे हैं। जुलाई 1 9 9 8 में वह उत्तर प्रदेश से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए। उन्होंने ‘आर.एस.एस. : मिथ एंड रियलिटी’ सहित आधा दर्जन पुस्तकों की रचना की है। सन् 1977 में उन्होंने श्री अटल बिहारी वाजपेयी की आपातकाल में लिखी गई ‘कैदी कविराय की कुंडलियाँ’ का संपादन किया। आपातकाल में ‘गुप्तक्रांति’ नामक पुस्तक भी लिखी। ‘हर-हर व्यंग्ये’ और ‘घर की मुरगी’ नामक दो संकलन प्रकाशित। वह अपने को पत्रकार ही मानते हैं, साहित्यकार होने का दावा नहीं करते। इसी तरह राज्यसभा का सदस्य होने के बावजूद वह अपने को राजनेता नहीं मानते। उनका नियमित लेखन जारी है।