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सृष्टि के विकास क्रम में चार युगों का चक्र चलता है—सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। प्रत्येक युग में धर्म का कुछ हृस होते-होते कलियुग में अधर्म अपने चरम पर पहुँच जाता है। कलियुग के बाद सतयुग का प्रादुर्भाव होता है, पर कैसे? क्या रहस्य है? अधर्म की वृद्धि से एकदम धर्मयुक्त सतयुग का कैसे प्रादुर्भाव होता है? इसमें क्या रहस्य है? कौन सा ईश्वरीय विधान छुपा हुआ है और उसका कलियुग में रहते हुए ही किन साधनाओं द्वारा प्रकट होना संभव है?
शास्त्र कहते हैं कि कलियुग के बाद पुनः धर्मयुग अर्थात् सतयुग आएगा ही। इतना ही नहीं, महाभारत तथा अनेक पुराणों में लिखा है कि कलियुग सर्वश्रेष्ठ है। यह पुस्तक एक ओर शास्त्रों के इन गंभीर रहस्यों को अत्यंत सरल भाषा में और उपयुक्त प्रमाणों तथा युक्तियों के माध्यम से स्पष्ट करती है तो दूसरी ओर बताती है कि
कलियुग के अवगुणों से कैसे बचना है और गुणों को कैसे धारण करना है?
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र—इन वर्णों का क्या महत्त्व है?
जीवन का लक्ष्य क्या है और उसकी प्राप्ति हेतु किन स्तरों को पार करना होता है?
धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है? उत्तरोत्तर धर्म की व्यापकता में साधक की चेतना का प्रवेश कैसे संभव है?
महायोगी स्वामी बुद्ध पुरी बचपन से ही गीता,रामायण आदि के अतिरिक्त स्वामी रामानंद,श्री अरविंद और थियोसॉफिकल सोसाइटी आदि की महायोगीय साधनाओं तथा साहित्य में रुझान; वर्ष 1972 में ढ्ढढ्ढञ्ज, दिल्ली से रू.ञ्जद्गष्द्ध. और फिर रूहृक्त्रश्वष्ट, इलाहाबाद में अध्यापन; ब्रह्मविद् वरिष्ठ सर्वतंत्र स्वतंत्र काशी की विद्वत् परंपरा के वाहक स्वामी दयालु पुरीजी से शास्त्र-शिक्षा और संन्यास-दीक्षापूर्वक ब्रह्म-बोध व ब्रह्म-परिनिष्ठिता; हिमालय क्षेत्र में तपस्या और मृत्युंजयी सिद्ध संतों की लुप्त-गुप्त साधनाओं की खोज तथा पुनः प्रकाशन; योग-भक्ति-वेदांत, तंत्रागम, अखंड महायोग, खेचरी-कुंडलिनी आदि साधना के गूढ़ विषयों पर शास्त्र-प्रमाण तथा निज अनुभव के आधार पर 20 से अधिक पुस्तकों का लेखन; सिद्धामृत सूर्य क्रियायोग सदृश अनेक साधनाओं का सृजन; ‘योग-साधना द्वारा भूख-प्यास पर विजय के पथ’ का प्रकाशन; गंभीर जिज्ञासुओं के मार्गदर्शन हेतु सदा तैयार।