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असम का प्राचीन नाम कामरूप है। शंकर द्वारा अभिशप्त कामदेव ने यहाँ नया रूप पाया था, अतः इस प्रदेश का नाम हुआ कामरूप। किंवदंती के अनुसार कामरूप की स्त्रियाँ सौंदर्य के जादू से पुरुषों को भेड़ा बनाकर रखा करती थीं। दिल्ली में बसी रानू कामरूप की है। वह अपने आकर्षक परिधान और मोहक भाव-भंगिमाओं से पुरुषों को बुद्धू बनाकर अपना उल्लू सीधा किया करती है। मर्यादाओं में पले संस्कारी अमित पर भी वह डोरे डालती है। दोनों के बीच घात-प्रतिघात चलते रहते हैं। इनका सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण उपन्यास में हुआ है। सद्गृहस्थ अमित नारी के मांसल सौंदर्य में नहीं, आंतरिक सौंदर्य में विश्वास रखता है।
उपन्यास में असम की सेक्स-पगी रक्त-रंजित गूढ़ धर्म-साधनाओं का परिचय मिलेगा। वहाँ के बिहू उत्सव, रिहा-मेखला परिधान, प्राकृतिक सौंदर्य, कामाख्या-हाजो-केदारेश्वर मंदिरों की उपासना-पद्धति की झाँकी भी दिखेगी। पाठक उपन्यास के पात्रों के साथ चित्रकूट के वनप्रदेश और खुजराहो के मंदिर-समूह की यात्रा करता चलेगा। कृति में समाहित प्रीति-प्रसंग पाठकों का मन गुदगुदा जाएँगे। अमित स्वयं कामरूप की यात्रा कर पाता है कि वहाँ की सही और सुशील महिलाएँ तो और ही हैं, रानू उनका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती। असम में धर्मांतरण और बांग्लादेशियों की घुसपैठ की गंभीर समस्याओं का संकेत भी इस कृति में है। यह निश्चय ही एक पठनीय पुस्तक है।
जन्म : 8 अक्तूबर, 1926 को क्योंटरा, औरैया-इटावा (उ.प्र.) में।
डॉ. रमानाथ त्रिपाठी बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। वे अनुसंधाता, कथाकार, निबंधकार, कवि और बहुभाषी अनुवादक हैं। उन्होंने बंगाल, असम और ओडि़शा के विराट् साहित्यिक समारोहों में वहीं की भाषाओं में धारा-प्रवाह भाषण दिए हैं। एक ओर उन्होंने राम-साहित्य पर गंभीर शोधकार्य किया है, तो दूसरी ओर ऐसा रामकथात्मक उपन्यास लिखा है जो पाठक को त्रेतायुग में पहुँचा देता है। शोध-प्रबंध, निबंध-संग्रह, यात्रा-वृत्तांत, कहानी-संग्रह, उपन्यास आदि को मिलाकर उनके मौलिक, अनूदित और संपादित ग्रंथों की संख्या लगभग 40 है। भारत, मॉरीशस, अमेरिका और इंग्लैंड की अनेक पत्रिकाओं में उनकी 300 रचनाएँ प्रकाशित। विविध क्षेत्रों के लगभग 30 पुरस्कार-सम्मान प्राप्त। उग्र-देशभक्ति के कारण उन्हें दो-तीन बार जेल-यात्रा भी करनी पड़ी। ‘रामगाथा’ उपन्यास के पश्चात् उनकी चर्चित कृतियाँ हैं—‘वनफूल’ और ‘महानागर’ (आत्मकथा)।
त्रिपाठीजी दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवामुक्त होकर दो वर्ष तक निराला सृजन पीठ के निदेशक रहे।