₹300
छ मानवीय संवेग है, जो देशकाल की परिधि से हटकर अनादिकाल से एक अनबूझी पहेली है। इनसान पहले प्राकृतिक और फिर उस पर लागू हुआ है सामाजिक संबंधों का अनुबंध। जब-जब मनुष्य, विशेषकर नारी, प्राकृतिक और स्वाभाविक हुई, तब-तब अनुबंध का न्याय अन्याय बनकर उसके सामने अचलायतन हुआ है। स्वाभाविक और प्रकृति जब-जब मुखर हुई है, अप्राकृतिक विधिनिषेधों ने उसके सामने गति अवरोधक की भूमिका निभाई है।
पितृतांत्रिक समाज ने नारी से आनुगत्य की कामना की है और वैसा करते समय हर देश का पुरुष यह भूला है कि नारी प्राथमिक रूप से माँ है, बाद में पत्नी है। जीवन की इन पहेलियों को सुलझाने का या एक संगत उत्तर ढूँढ़ने का प्रयास है यह उपन्यास ‘कर्ण तुम कहाँ हो’। बिंबों के माध्यम से उन संवेदनशील तारों को छूने का एक प्रयास है, जिनके सुर से हमें लगाव है, लेकिन जिन्हें हम सुनना नहीं चाहते।
प्रलय भट्टाचाय
जन्म : 30 सितंबर, 1947 को वाराणसी में।
शिक्षा : काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि।
साहित्य-सेवा : छात्रावस्था से लेखन कार्य प्रारंभ। ‘Love Songs of Vidyapati’ (अंग्रेजी), ‘सेकालेर ग्रीक व रोमन गल्प’ (प्राचीन ग्रीक व रोमन कहानियाँ), ‘गुरु दक्षिणा’, ‘तदस्तु हृदयं मम’ (बँगला)। मासिक, त्रैमासिक पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ एवं लेख प्रकाशित। बँगला में पचास से भी अधिक कहानियाँ प्रकाशित। अभिनेता के रूप में तीस से अधिक नाटकों में मुख्य चरित्र का अभिनय। रवींद्रनाथ टैगोर की ‘काबुलीवाला’ नाटक में रहमत काबुलीवाला का चरित्र समालोचकों द्वारा प्रशंसित।
इ-मेल : pralay.bhattacharya30@gmail.com