₹300
"कर्ण की सामर्थ्ये का सही मूल्यांकन उसके सामने भीष्म ने किया है। इसमें उनकी नाराजगी या एकांगिता को ढूँढऩा निरर्थक है, न ही अर्जुन के प्रति स्नेह के कारण उन्होंने कर्ण का अपमान किया, क्योंकि कर्ण दो-तीन बार अर्जुन से पराजित हो चुका है। उस पर भी वह द्रोण-भीष्म को अपने सामने कुछ नहीं गिनता है।
इस उद्दाम अभिमान ने भीष्म को कठोर बोलने के लिए विवश किया है। इसमें भी अंत: पीड़ा है कि कर्ण अब तो स्वयं को सुधार ले! इसके बाद भी जब-जब कर्ण ने वरिष्ठ सदस्यों का अपमान किया है, उस वक्त भी भीष्म ने अपना संयम नहीं छोड़ा। वस्तुत: भीष्म की आयु, युद्ध-कुशलता और ज्ञान का तो कर्ण थोड़ा विचार करता! उसने सामान्य शिष्टाचार भी नहीं रखा, अभद्रता पर उतर आया है।
कर्ण-भीष्म में पहले एक बार जो चिनगारी पड़ी, वह इस समय प्रज्वलित हो उठी। उसमें नुकसान दुर्योधन और उसके मित्र कर्ण का ही हुआ है। जब अति महत्त्वाकांक्षा से राष्ट्र के नेता तमाशा करने लगें तो राष्ट्र की जिम्मेदारी तो वह कतई उठा नहीं सकते, अपने साथ राष्ट्र का सर्वनाश करते हैं। बचते हैं इतिहास के पन्नों में बिखरे उसकी क्षुद्र हरकतों के अवशेष!"
1 मई 1834 को जनमे दाजी पणशीकर (मूल नाम नहरिविष्णु शास्त्री) ने औपचारिक स्कूली शिक्षा के बाद व्याकरणाचार्य पिताश्री विष्णु शास्त्री से घर में ही वेदों की शिक्षा, साथ ही पं. श्रीपादशास्त्री किंजवडेकर से संत साहित्य एवं उपासना शास्त्र की विधिवत् शिक्षा ग्रहण की। प्रमुख संपादित ग्रंथ हैं : ‘एकनाथांचे भावार्थ रामायण-2 खंड’ जिसके दस संस्करण निकल चुके हैं। ‘श्रीनाथांचे आठ ग्रंथ’; प्रमुख टीका ग्रंथ : ‘कर्ण खरा कोण होता?’, ‘महाभारत एक सूडाचा प्रवास’, ‘कथामृत’।
इनके अलावा कपटनीति, शब्दोत्सव आदि सात पुस्तकें भी लिखीं। गोवा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश, दिल्ली तथा विदेशों में अब तक लगभग 1800 व्याख्यान संपन्न। मराठी अखबारों में स्तंभ-लेखन।