₹250
प्रस्तुत पुस्तक की कथाओं में लोककथा के तत्त्व सन्निविष्ट हैं। इनमें एक ओर समाज का निरावरण चित्र है तो दूसरी ओर अस्वाभाविकता की सीमा तक अतिरंजना है।
वेद शिष्ट जनों का साहित्य है, तो पुराण लोक-साहित्य। परंपरानुसार दीर्घकालीन सत्रों में पुरोहित पुराणों की कथाएँ सुनाकर यजमान व इतर अभ्यागतों का मनोरंजन किया करते थे।
‘कथा पुरातनी : दृष्टि आधुनिकी’ इन्हीं पुराणों की कुछ चुनी हुई कथाओं की आधुनिक संदर्भ में व्याख्या है। प्रश्न हो सकता है कि क्या ये कथाएँ आज के पाठक का मनोरंजन करने में समर्थ हैं? तो भले ही इनके प्रतीकात्मक अर्थ कुछ भी हों, पर इन कथाओं की प्रासंगिकता आधुनिक संदर्भ में और भी आवश्यक है।
यद्यपि इस संग्रह की अधिकांश कथाएँ वैदिक पुराणों से हैं, फिर भी कुछ कथाएँ बौद्ध जातकों व जैन पुराणों व जैनागमों के टीका ग्रंथों से भी ली गई हैं। इनमें नीति व सदाचार की कथाएँ मुख्य हैं। सांप्रदायिक सद्भाव को इंगित करती हुई भी अनेक कथाएँ हैं, अनेक कथाएँ सदाचार व नैतिकता का संदेश देती हैं। कथाएँ पौराणिक हैं, उनकी व्याख्या की चेष्टा आधुनिकी है।
जन्म : 22 फरवरी, 1950 को।
शिक्षा : एम.ए., संस्कृत (गोल्ड मेडलिस्ट); साहित्य पारंगत, मराठी (गोल्ड मेडलिस्ट); पी-एच.डी. (संस्कृत), डी.लिट.।
प्रकाशित पुस्तकें : ‘यापनीय और उनका साहित्य’ (जैनों के यापनीय संप्रदाय पर प्रथम व चर्चित शोध कार्य), ‘भारतीय काव्यशास्त्र व काव्यभाषा और काव्यबिंब’ (नागपुर विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट. की उपाधि प्रदत्त), ‘युग-प्रणेता आंबेडकर’ (महाराष्ट्र राज्य हिंदी अकादमी द्वारा ‘काका कालेलकर पुरस्कार’ से पुरस्कृत), ‘क्रांतिगाथा’ (मराठी), ‘काले गुलाब की डाली’ (कविता-संग्रह), ‘मुक्तागिरि—एक तीर्थक्षेत्र’, ‘रमाबाई आंबेडकर’ (मराठी से अनूदित)।
अन्य : विविध शोध-पत्रिकाओं में हिंदी, मराठी, संस्कृत व अंग्रेजी में चालीस शोध निबंध तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सामयिक विषयों पर हिंदी व मराठी में दो सौ से अधिक लेख एवं पचास से अधिक कविताएँ प्रकाशित। विभिन्न साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक व धार्मिक संस्थानों द्वारा सम्मानित।
संप्रति : नागपुर विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर संस्कृत शिक्षण विभाग में रीडर।