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प्रस्तुत कहानी-संग्रह 'कुछ टूटने की आवाज' की अधिकतर कहानियों में कोमल भावों, जैसे जमीर, भरोसा, ह्रश्वयार, मनोबल, धैर्य, सरलता आदि के आहत होने या टूटने-बिखरने से मची अंदरूनी उथलपुथल और उससे उपजी भावनाओं में बहकर किए गए बाह्य कार्यकलापों का काल्पनिक चित्रण है।
टूटने से आवाज होती है। फिर टूटने वाली वह चीज भले ही भौतिक अस्तित्व रखती हो, जैसे क्रॉकरी, शीशा, पत्थर अथवा फर्नीचर या जिसका भौतिक अस्तित्व न हो, जैसे भरोसा, जमीर, मनोबल या ह्रश्वयार। दोनों के टूटने पर मन दुखता है। दोनों तरह की चीजों के टूटने की आवाज हमारा ध्यान अपनी ओर खींचती है; कुछ करने के लिए कहती है।
भौतिक वस्तुओं के टूटने के बाद हम उन्हें मरम्मत कराकर ठीक कर लें या यदि हमारे पास पैसा है तो उन्हें कूड़ेदान में फेंककर दूसरी खरीद लें। हमारे व्यक्तित्व की अभौतिक चीजों के टूटने पर भरपाई इतनी आसान नहीं होती। जमीर, भरोसा, ह्रश्वयार और मनोबल किसी भी कीमत पर बाजार में नहीं मिलते। उन्हें सिर्फ जोड़ा जा सकता है, और जोडऩे पर भी गाँठ पड़ जाती है। इसलिए इन्हें सँभालकर रखें।
जन्म एटा जिले के जलालपुर गाँव में 10 जनवरी, 1949 को हुआ। एटा के जीआईसी से इंटरमीडिएट करने के तुरंत बाद सन् 1966 में रुड़की विश्वविद्यालय के मेटलर्जिकल इंजीनियरिंग के छात्र बने और ग्रैजुएशन के बाद आईआईटी कानपुर से एम.टैक. किया। सन् 1973 में बतौर इंजीनियर बोकारो स्टील प्लांट में नौकरी शुरू की। सन् 1981 में रेलवे की नौकरी में आए और विभिन्न पदों पर रहते हुए जनवरी 2009 में आरडीएसओ लखनऊ से कार्यकारी निदेशक पद से रिटायर हुए। संप्रति लखनऊ में रहते हुए लखनऊ आई सेंटर में सीईओ के पद पर कार्यरत हैं।हिंदी में लेखन की रुचि छात्र जीवन से ही रही। इक्का-दुक्का रचनाएँ कॉलेज की पत्रिका में छपती रहीं। इसी अभिरुचि के चलते सन् 1985 में पहिया। धुरा कारखाने में राजभाषा विभाग में सचिव का अतिरिक्त कार्यभार सँभाला और दक्षिण भारतीय स्टाफ में हिंदी के प्रति रुचि जाग्रत् करने हेतु सन् 1987 में अखिल भारतीय रेल मंत्री पुरस्कार मिला।रिटायरमेंट के बाद हिंदी लेखन को रचनात्मक धार मिली। फेसबुक पर लेख और कहानियाँ छपीं तो पाठकों की प्रतिक्रियाओं ने उत्साहवर्धन किया। एक कहानी-संग्रह 'बरगद काट दो' प्रकाशित होकर बहुचॢचत।