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"जरा याद करें--आखिरी बार आप कब ठठाकर, खिलखिलाकर हँसे थे ? आखिरी बार आपने कब खुद से खुलकर बात की थी ? आखिरी बार आप कब खुद से मिले थे ? जरा याद कीजिए--आखिरी बार आप कब बारिश में बिंदास झमाझम भीगे थे ? टपटप गिरती बूँदों को महसूसा था ? जरा याद कीजिए--आखिरी बार आपने कब किसी फूल को हौले से छुआ था ? किसी पेड़ से जरा ठहरकर ऐंवी बतियाया था ?
अरे जनाब! कभी हवा की ओर मुखातिब होकर देखिए और हवा का मंद-मंद बहना महसूस कीजिए। अपने अंदर-बाहर अनवरत यात्रा करती साँसों को महसूस कीजिए नन्हे बच्चों का बेलौस मुस्कराना महसूस कीजिए। अपने अंदर कहीं दुबक गए बचपन को महसूस कीजिए प्रकृति के बसंत को ही नहीं, अपने अंदर बसे बसंत को भी महसूस कीजिये।
ऋतुए हर बार नई बनकर लौटती हैं । यह वही बसंत नहीं, जो पिछले बरस आया था। आपके आँगन उतर आए इस नए बसंत से बतियाकर तो देखिए! यह बारिश भी नई है। जरा इस झमाझम बारिश में बिंदास छमाछम नहाकर तो देखिए। बहुत जी लिया उस तरह, इस बार कुछ इस तरह जीकर तो देखिए! जनाब, जीना इसी का नाम है!"