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इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए पता चलता है कि कवि राकेश का रचना-संसार अत्यंत समृद्ध एवं विस्तृत है। सामाजिक यथार्थों और विसंगतियों को समेटने और भेदने में उनकी काव्यदृष्टि सक्षम है। विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति के विभिन्न उपादानों और नदियों के विनाश से कवि का मन तकलीफ से भर उठता है। प्रकृति की लोकतांत्रिक मोहकता बेशक सबको आकर्षित करती है, परंतु हमारी उपेक्षा से उसमें निरंतर हृस हो रहा है। ‘कुँवरवर्ती’, ‘वापसी’ और ‘शहरी मेढक’ जैसी कविताओं में यही चिंता साफ दिखती है। संग्रह की कविताओं में जो सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि है, वह समकालीन घटनाओं की सख्ती से छानबीन करती है। संविधान और लोकतंत्र में गहरा विश्वास, सामाजिक न्याय का प्रबल समर्थन, जातीय भेदभाव के विरोध के साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के सवालों से भी बड़ी संजीदगी से इस संग्रह की कविताएँ मुठभेड़ करती हैं। किसानों की रोजमर्रा की समस्याएँ, उनकी फसलों के वाजिब मूल्य, गरीबी और आत्महत्या के मुद्दों के बीच जीवन में हरियाली बोने की जिदवाली उम्मीद हमें आश्वस्त करती है कि अभी सबकुछ खत्म नहीं हुआ है। लोकतंत्र की संस्थाओं पर भरोसा एवं सभी के अधिकारों का सम्मान करके ही हमारा विविधतापूर्ण देश एक सशक्त राष्ट्र बन सकता है।
हमें अपने जीवन से अनेक तरह के अनुभव प्राप्त होते हैं। कवि मन ऐसे अनुभवों, और स्मृतियों को भी अपनी कविता के माध्यम से अभिव्यक्त करता है।
डॉ. राकेश कबीर एक युवा कवि, कहानीकार और शोधार्थी हैं। उनकी कविताएँ, कहानियाँ और लेख हिंदी और अंग्रेजी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित और चर्चित होते रहे हैं। उनकी कविताओं में जल, जंगल और जमीन तथा उनसे जुड़ी आमजन की चिंता के साथ सामाजिक अन्याय, पाखंड और रूढि़वाद का तीव्र विरोध मिलता है। उनका जन्म सन् 1984 में उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जनपद के एक गाँव में किसान परिवार में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा गाँव में प्राप्त करने के बाद वे आगे की पढ़ाई के लिए राजकीय इंटर कॉलेज, गोरखपुर चले गए। गोरखपुर विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र विषय में मास्टर डिग्री प्राप्त करने के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में प्रवेश लिया, जहाँ से उन्होंने ‘प्रवासी भारतीयों का सिनेमाई चित्रण’ विषय पर एम.फिल. तथा ‘ग्रामीण सामाजिक संरचना में निरंतरता और परिवर्तन’ विषय पर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। राकेश कबीर भारतीय सिनेमा के भी गंभीर अध्येता हैं और उनकी ‘सिनेमा को पढ़ते हुए’ शीर्षक पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य है। इतिहास, समाज और संस्कृति के विभिन्न आयामों में उनकी गहरी दिलचस्पी है, जिसे उनकी कविताओं में साफ-साफ महसूस किया जा सकता है।