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हँसी की इन लहरों के बीच
कमल किस दुःख का खिलता है,
मानते हो जिसको तुम शील
विवशताओं में पलता है।
हृदय की उठती हुई वह आग,
फूटती अरुणाभा जैसी,
दिवस के उज्ज्वल माथे पर
तिलक की पावन आभा सी
हृदय में ही घुटकर रह गई,
बन गई मेरा चिर अभिशाप,
घेर ज्यों पुण्यों को छा जाए
किसी प्राचीन जनम का शाप।
—इसी पुस्तक सेउषा की कविताएँ आत्मपरक हैं। इनमें समर्पण है, कोई गहरी टीस है, आकुल मन की पुकार है और प्रतिभा के अनुरूप प्राप्य न मिल पाने की कुंठा भी है। उषा ने विचार-प्रधान कुछ मुक्तक भी लिखे हैं। काश, उषा ने बी.ए. और एम.ए. में हिंदी ली होती।
अनुजावत् अपनी प्रिय शिष्या उषा को मेरा स्नेहाशीष है कि वह पूर्ण स्वस्थ रहकर कम-से-कम एक और कविता संग्रह हिंदी जगत् को दे सके। मुझे विश्वास है कि पाठकों की ओर से इस मौन साधिका को प्रोत्साहन मिलेगा।—डॉ. रमानाथ त्रिपाठी की भूमिका से
जन्म : 15 दिसंबर, 1946
शिक्षा : एम.ए. (अंग्रेजी), बी.एड.
प्रकाशन : यत्र-तत्र पत्र-पत्रिकाओं में कुछ स्फुट रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। सहयोगी संकलन ‘कविता परिदृश्य’ प्रकाशित हुआ है।
अपनी बात : जो बात किसी से नहीं कही जा सकी और मन के अंदर भी नहीं रखी जा सकी, वही समय-समय पर इन पंक्तियों में फूटी है। उसे कविता का रूप मिला इसका श्रेय मेरे श्रद्धेय गुरुजनों को है, जिनकी निरंतर प्रेरणा व आशीर्वाद के बिना काव्य-सरिता का जीवन-मरू में खो जाना सहज अनिवार्य था।
संपर्क : एन-33, पंचशिला पार्क, नई दिल्ली-110017
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