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हिंदी में समग्र ज्ञान की कालजयी पत्रिका ‘सरस्वती’ के यशस्वी संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के कृतित्व को हिंदी साहित्य में एक युग के नाम से परिभाषित किया गया है—‘द्विवेदी-युग’। उन्होंने खड़ी बोली हिंदी के परिमार्जन का अभूतपूर्व कार्य संपादित किया; हिंदी साहित्य के अनेक उदीयमान रचनाकारों को तराशा, जो कालांतर में लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकार हुए। शब्दानुशासन के आग्रही द्विवेदीजी कठोर संपादक माने जाते थे। ऐसा भी होता था कि उनके संपादन से रचना का स्वरूप नया हो जाता था। इस भूमिका में प्रकारांतर से आचार्य द्विवेदी रचनाकारों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुए। ‘सरस्वती’ को उन्होंने साहित्यिक पत्रिका ही नहीं बनाया, बल्कि ज्ञान की विविध विधाओं के सार्वजनिक संप्रेषण का माध्यम बनाया। एक चैतन्य समाज के लिए जिन विषयों की जानकारी होनी चाहिए, वे सब ‘सरस्वती’ में प्रकाशित होते रहे। ज्ञान-विज्ञान के किसी भी पक्ष को उनके सजग संपादक ने ओझल नहीं होने दिया।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘भारत मित्र’ के संपादक बालमुकुंद गुप्त के बीच ‘अनस्थिरता’ शब्द को लेकर हुआ शास्त्रार्थ एक उदाहरण है कि उस समय के संपादक भाषा की परिशुद्धता के लिए कितने सजग थे। ऐसी विद्वत् बहस अंतत: भाषिक परिमार्जन का उद्देश्य पूर्ण करती थी। आचार्य द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का आईना यह पुस्तक विद्यार्थियों, शोधार्थियों, पत्रकारों ही नहीं, आम पाठक के लिए भी ज्ञानपरक एवं प्रेरणादायी है।
पूर्व प्रशासक डॉ. सुशील त्रिवेदी पत्रकारिता, साहित्य तथा कला विषयों के सुलेखक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनकी एकाधिक पुस्तकों को सम्मान और सराहना के साथ स्वीकार किया गया है। शैक्षिक उपक्रमों में उनकी गहरी संलग्नता रही है। प्रशासन के विभिन्न महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य करते हुए उनकी लेखकीय संवेदनाओं ने जन सरोकारों को जीवंत बनाए रखा है।