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सूरज का यह दूसरा संग्रह है। पहले संग्रह ‘धुआं-धुआं सूरज’ में सूरज की शेरों-शायरी के बहुत से रंग देखने को मिले। ‘सूरज’ दरअसल कबीर की परंपरा के वाहक हैं, वे कागद लेखी की बजाय आंखन देखी पर ज्यादा यकीन करते हैं। सूरज बेबाक हैं, अपनी बात साफगोई से कहना उनका स्वभाव है।
‘मैं, तुम्हारा चेहरा’ रुबाइयों में इनसान की जिंदगी के दर्द के रिश्तों के एहसास के अलग-अलग चेहरे हैं, नजरिए हैं, बस और कुछ नहीं। इनमें सूरज ने हमारी, हम सबकी बात की है, जो कहीं-न-कहीं व्यवस्तताओं की भीड़ में हमसे नजरअंदाज हो जाती हैं। सूरज ने चार-चार पंक्तियों में जिंदगी के सभी रंग करीने से पिरोए हैं। दोस्ती-दुश्मनी, रंजोगम, दौलत, शोहरत, दुनियादारी जैसे सवालात और भावों को इस संग्रह में अभिव्यक्ति मिली है, जो मन में गहरे तक उतर जाती हैं, जैसे— ‘‘सांस-सांस चाक हो गई आरजुएं खाक हो गईं। बस, खुदी को मुंह लगा लिया जिंदगी मजाक हो गई।’’
‘सूरज’ कवि सम्मेलन और मुशायरे दोनों के मंच से अपनी शायरी, मुक्तक, रुबाइयां पढ़ते हैं, उनका सुर बहुत सुरीला है।
मंच पर वे बहुत लोकप्रिय हैं। ‘सूरज’ एक रंगकर्मी भी हैं। हम अकसर उन्हें या तो कवि-शायरों के मंच पर पाते हैं या फिर किसी नाटक में अभिनय करते। जबलपुरिया होने के कारण उनकी जीवनशैली, लेखनशैली सभी कुछ यारबाजी, दिलेरी से भरी हुई है। सूरज दरअसल हमारे समय का इतिहास लेखन कर रहे हैं, जो उनकी अपनी शैली में है।
सूरज राय ‘सूरज’
जन्म : 14 अप्रैल, 1960, जबलपुर (म.प्र.)
शिक्षा : बी.एस-सी.
पिता : स्व. श्री सुखदेव प्रसाद
माता : स्व. श्रीमती ताराबाई
पेशा : केन्द्रीय रक्षा लेखा अनुभाग में सीनियर ऑडिटर
रुचि : थिएटर से जुड़ाव
संप्रति : धुआँ-धुआँ सूरज
पता : 996, गंगा सागर, गढ़ा रोड़, जबलपुर (म.प्र.)
मो. 9425155553