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जीवन में हम जो पाना चाहते हैं उसे पाने के लाखों प्रयास करते ही हैं। प्रायः उनका परिणाम सुखद होता है। ठीक इसी मुकाम पर पहुँचकर हम वह सब भूल जाते हैं जिसके चलते वहाँ तक पहुँचना संभव हुआ। इससे उलट हमारी लाख कोशिशों के बाद भी जब कभी हमारा इच्छित प्राप्त नहीं होता, तब! तब वह कवायद ताउम्र ऐसे याद रही आती है जैसे कल ही की बात हो। जीवन में सायास या अनायास उपकृत होते रहना भी नियति है। कभी ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं जो बुद्धि और विवेक को संज्ञा-शून्य कर देती हैं। सब कुछ ठहर-सा जाता है। कुछ भी चीह्न पाना कठिन हो जाता है। कालांतर में वे स्थितियाँ ही पूछती हैं—बताओ तो हम क्या हैं! क्यों हैं! हमारी जो परिणति हुई, वही अपरिहार्य थी! क्षणिक उन्माद का, आवेग का प्रतिफल तो नहीं थी! वीरेंद्र जैन ने इन संस्मरणात्मक आख्यानों में कहीं इसका उत्तर तलाशने का प्रयास किया है तो कहीं उत्तर देने का
इतना सुख है जीवन में! इतना कुछ है मेरे मन में! और अब तक मैं इससे वंचित था, अनजान था! भारतीय मध्यवर्ग में बढ़ती बाजारवाद, उपभोक्तावाद और भोगवाद की प्रवृत्तियों के संदर्भ में इससे बेहतर स्वीकारोक्ति नहीं हो सकती। लालसाएँ आदमी को घेरे रहती हैं, कुछ प्रत्यक्ष रूप में सामने आती हैं, तो कुछ अंतस में दबी रहती हैं और अनुकूल अवसर पाते ही पूर्ति हेतु सिर उठाने लगती हैं। लगता है जैसे आधुनिकतम महानगरीय मध्यवर्ग अपनी सभी लालसाओं की पूर्ति के लिए बेताब है। इसमें दो फाड़ की नौबत आ चुकी है। एक जो खुलकर इस खुलेपन को जी रहा है और दूसरे के पास आर्थिक संसाधन कम पड़ रहे हैं। ऐसे में उसे जब मौका मिलता है तो वह इसे जीने के लिए अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ता। बाजार इस वर्ग की मजबूरी और इच्छाओं को समझते हुए हमेशा चारा फेंकने की जुगत में रहता है। वह गैर-जरूरी चीजों के प्रति भी भ्रमपूर्ण लगाव पैदा कर भावनाओं का दोहन करने से नहीं चूकता। एक नई उपभोक्ता संस्कृति साकार ही नहीं हो रही, दिन-ब-दिन विकराल भी होती जा रही है। कुशल व्यवसायी सिर्फ माल नहीं बेच रहे, बड़ी चालाकी से विचार भी प्रत्यारोपित कर रहे हैं। उदारवाद के पीछे की चालाकी और चतुराई को उजागर करना नितांत आवश्यक हो गया है।
‘तीन दिन, दो रातें’ एक इनामी किस्से की कथा के बहाने इसी ज्वलंत समस्या को परत-दर-परत बेनकाब करता है। प्रसिद्ध लेखक वीरेंद्र जैन की यह खासियत है कि वे अपनी चुटीली भाषा-शैली के जरिए कथानक को चरम पर ले जाते वक्त भी यथार्थ को सहेजते हैं। इसीलिए उनका यह उपन्यास भौतिकवाद के विनाशकारी परिणामों का पुख्ता दस्तावेज बन पड़ा है।