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असम के बाद वर्ष 2003 में ले.जन. एस.के. सिन्हा जम्मू एवं कश्मीर के राज्यपाल नुयक्त हुए। अपने छह वर्ष के कार्यकाल के दौरान कश्मीर समस्या के समाधान हेतु उन्होंने अपनी क्षमता और व्यापक अनुभव के बल पर क्या कुछ किया, प्रस्तुत पुस्तक में इसका विस्तृत वर्णन है।
आतंकवाद के चलते जम्मू एवं कश्मीर में भारत की अखंडता और प्रभुसत्ता की रक्षा करना चुनौतीपूर्ण कार्य था, अभी भी है। अपने कार्यकाल के दौरान किस तरह लेखक ने इन चुनौतियों का सामना किया, वहाँ के लोगों को विश्वास में लिया, यह एक लंबी कहानी है। उन्होनें यहाँ की राजनीति में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी। राज्य के कई मुख्यमंत्रियों से उनका आमना-सामना हुआ। लेखक ने इनके साथ अपने संबंधों, सहयोग और विरोधाभासों का खुलकर उल्लेख किया है।
धार्मिक, ऐतिहासिक, सैन्य, आर्थिक और जातीय—कश्मीर समस्या के इन विभिन्न आयामों के बीच वहाँ एक सौहार्दपूर्ण वातावरण तैयार करना बेहद टेढ़ी खीर था। ऐसी स्थिति में उन्होंने कश्मीर में विद्रोह, आतंकवाद और छद्म युद्ध के दुष्चक्र को समझा और जाना कि धार्मिक कट्टरता ही यहाँ उग्रवाद की मुख्य जड़ है। उन्होंने लोगों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का सार्थक प्रयास किया। उनके प्रयास से ही यहाँ कश्मीरियत को बल मिला। कश्मीर समस्या की वास्तविक सच्चाई और राज्य के सुरक्षा परिदृश्यों की जानकारी देती विचारप्रधान पुस्तक यह स्थापित करती है कि निस्संदेह कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, और हमेशा रहेगा।
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विषय-सूची
प्राक्कथन — Pgs. 5
1. कश्मीर समस्या — Pgs. 11
2. अमरनाथ विवाद और उसके बाद — Pgs. 191
लेफ्टिनेंट जनरल (अ.प्रा.) एस.के. सिन्हा, पी.वी.एस.एम. का जन्म 1926 में हुआ। सन् 1943 में पटना विश्वविद्यालय से स्नातक; इसके बाद जाट रेजीमेंट में नियुक्ति, फिर 5-गोरखा राइफल्स में स्थानांतरण, कश्मीर लड़ाई (1947) एवं प्रथम भारत-पाक युद्ध (1947-48) से शुरू से अंत तक जुड़े रहे।
सेना में अपने लंबे कार्यकाल के दौरान जनरल सिन्हा ने प्लाटून से लेकर फील्ड आर्मी तक सभी स्तरों पर कमान सँभाली। 1973 में उत्कृष्ट सेवा के लिए ‘परम विशिष्ट सेवा मेडल’ (पी.वी.एस.एम.) से अलंकृत; अंतिम नियुक्ति सेना उप-प्रमुख के रूप में हुई, जिसके बाद 1983 में सेना से त्यागपत्र दे दिया।
नेपाल में भारत के राजदूत के रूप में दोनों देशों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों को नई ऊँचाई देने और नेपाल में लोकतंत्र की बहाली में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन् 1997 में असम के राज्यपाल के रूप में उन्होंने अद्भुत कार्य किया, जिससे ‘असम की मिट्टी के सच्चे सपूत’ कहलाए। 2003 में आतंकवाद ग्रस्त राज्य जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल बने, वहाँ भी उन्होंने राज्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए जो कुछ किया, वह इस कृतज्ञ राष्ट्र की स्मृति में अभी तक ताजा है।