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"भारत में राजनीतिक चिंतन की अवधारणा काफी पुरानी है और इसकी जड़ें लगभग पाँच हजार साल पीछे तक जाती हैं। यह मनु और शुक्र के चिंतन से होते हुए कौटिल्य तक आती हैं। भले ही मैक्समूलर, ब्लूमफील्ड और डर्निंग जैसे पश्चिम के लोग कहते रहे हों कि भारतीय दर्शन में राजनीतिक चिंतन का अभाव है, मगर भारतीय ग्रंथों में राजनीतिक चिंतन का भरपूर स्रोत मौजूद है। वैदिक साहित्य, जैन और बौद्ध साहित्य, शुक्राचार्य की शुक्रनीति, कामंदक का नीतिसार, रामायण, महाभारत एवं कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मूल भारतीय राजनीति के कई स्रोत हैं।
2024 के चुनाव में स्पष्ट नजर आया कि जनता ने किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं दिया। जनता का संदेश था कि मिल- जुलकर सरकार चलाना सीखो, ताकि फूट डालने के प्रयास से भय लगे। इस चुनाव के नतीजे कई मायनों में चौंकाने वाले रहे। जनादेश से सिर्फ सत्ता का आदेश ही नहीं निकला, बल्कि बहुत से संदेश भी निकले। उन्हें ही अधिक-से-अधिक इस पुस्तक में दर्ज करने का प्रयास रहा है। फिर भी बहुत से संदेश निस्संदेह छूट गए हैं, जैसे तुलसीदास ने रामचरितमानस में कहा है- 'तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कुछ मति अनुसारा।'
समय से बड़ा कोई गुरु नहीं है। वह बार-बार समझाता है, मगर हम वैसा ही समझ पाते हैं, जैसी हमारी मति होती है। इस लोकसभा चुनाव में भी मोदी 3.0 के लिए संदेश साफ है। उम्मीद है कि पाठकों को यह नया प्रयास भी पसंद आएगा।"