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महायोगी गोरखनाथ का विराट् व्यक्तित्व बहुआयामी है । उनके व्यक्तित्व के अनेक छोर हैं, जिसका एक सिरा बौद्ध सिद्ध से जुड़ता है, तो दूसरा शिव से; एक सिरा हठयोग से जुड़ता है, तो दूसरा आमजन के सहज जीवन से। एक रूप उन्हें योग पद्धति, शरीर विज्ञान, रस- शास्त्र एवं कायाकल्प आदि के विशेषज्ञ के रूप में स्थापित करता है, तो दूसरा हर प्रकार की अति से बचकर मध्यम मार्गी गृहस्थ-परंपरा से उन्हें जोड़ देता है। गोरख जहाँ एक तरफ हिंदू संस्कृति के योगी दिखते हैं, तो वहीं दूसरी तरफ किसी भी पंथ-संप्रदाय से ऊपर उठकर मुसलिम समाज को आकर्षित करनेवाले फकीर के रूप में प्रसिद्धि पाते हैं। उनका एक रूप संस्कृत ज्ञाता और दार्शनिक का है तो दूसरा हिंदी - भोजपुरी के आदि कवि का । एक तरफ वे जीवन के गूढ़ विषयों पर चिंतन-मनन- अभ्यास करते दिखाई देते हैं, तो दूसरी तरफ लोक जीवन को दिशा देनेवाले सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका में लोक - व्याप्त हैं । महायोगी गोरखनाथ का व्यक्तित्व एक तरफ अविश्वसनीय चमत्कारों का है, तो दूसरी तरफ सामान्यजन का दुःख-दर्द सुनते-समझते उनको दुःखों से त्राण दिलानेवाले सामान्य योगी का है। ऐसे विराट् व्यक्तित्व के धनी इस महायोगी के स्वाभाविक रूप से बड़ी संख्या में अनुयायी बने । योग के साधक इस महामानव ने योगियों-सिद्धों का संगठन कर नाथपंथ का प्रवर्तन किया । नाथपंथ योग-प्रधान पंथ है। नाथपंथ की साधना पद्धति का मूल रूप औपनिषदिक योगधारा तथा आगमधारा में देखा जा सकता है । यौगिक प्रक्रिया मुनि-परंपरा से श्रमण परंपरा और आगमधारा के रूप में द्विधा विभाजित हुई । वस्तुतः वैदिक- औपनिषदिक योग साधना पद्धति को युगानुकूल बनाते हुए नाथपंथ ने इसे व्यवस्थित स्वरूप दिया तथा इसके क्रियात्मक पक्ष को सिद्ध किया और उसे आमजन तक पहुँचा दिया।