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अल्फ्रेड नोबेल द्वारा सन् 1901 में स्थापित नोबेल पुरस्कार विश्व का सबसे अधिक प्रतिष्ठित पुरस्कार है। यह अब तक संसार के लगभग छह सौ पचास प्रतिभावान् व्यक्तियों को दिया जा चुका है, जिनमें से सन् 2003 के अंत तक महिलाओं की संख्या उनतीस थी। नोबेल पुरस्कार लिंग, जाति, देश, वर्ग आदि के भेदभाव के बिना दुनिया के किसी भी नागरिक को दिया जा सकता है।
स्त्री परिवार की धुरी है। केंद्र में होने से परिवार उसकी प्राथमिकता है। पुरुषों की तरह वह सबकुछ छोड़-छाड़कर दिन-रात अनुसंधान में, लेखन में या शोध-कार्य में लगी नहीं रह सकती। घर-बच्चों की जिम्मेदारी के बाद कैरियर या अन्य क्षेत्रों के प्रति समर्पण उसके लिए द्वितीय स्थान पर है। इसीलिए कई बार प्रखर प्रतिभाएँ भी अपने विशेष क्षेत्रों में सामने न आकर एक अंतराल के बाद घर की चारदीवारी में ही दम तोड़ देती हैं। न तो सब मदर टेरेसा की तरह तपस्विनी हो सकती हैं, न म्याँमार की आंग सान सू की की तरह आजीवन क्रांति को समर्पित, न ही विज्ञान में नई खोजों में बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त करनेवाली बारबरा मैकलिनटाक, जरट्रड बी. इलियन, रीटा लेवी मांटेलिसिनी की तरह वैज्ञानिक अनुसंधान के अपने ध्येय की खातिर विवाह न करनेवाली। फिर भी वर्षों लंबी साधना या अनवरत संघर्ष के बाद नोबेल पुरस्कार जैसी बड़ी उपलब्धि प्राप्त करनेवाली इस अल्प संख्या पर भी हमें यों गर्व होना चाहिए कि अनेकानेक बाधाओं के बीच काम करते हुए ही कोई महिला इस उच्चतम शिखर तक पहुँच पाती है।
हिंदी में भी अब ज्ञान-विज्ञान के साहित्य की ओर पाठकों की रुचि बढ़ी है। फिर अपने-अपने ज्ञान-क्षेत्रों में सफलता के उच्चतम शिखरों को छूनेवाली नोबेल पुरस्कार विजेता महिलाओं की प्रतिभा, लगन व अनवरत साधना से प्राप्त उपलब्धियों को जानने, आँकने और उनसे प्रेरणा पाने की अभिलाषा किसे न होगी! विशेष रूप से इन क्षेत्रों में रुचि लेनेवाली महत्त्वाकांक्षी युवतियों एवं उभरती प्रतिभाओं के लिए यह पुस्तक अनेक दृष्टियों से उपयोगी सिद्ध होगी, ऐसा हमारा विश्वास है।
श्रीमती आशारानी व्होरा ( जन्म : 7 अप्रैल, 1921) हिंदी की सुपरिचित लेखिका हैं । समाजशास्त्र में एम.ए. एवं हिंदी प्रभाकर श्रीमती व्होरा ने 1946 से 1964 तक महिला प्रशिक्षण तथा समाजसेवा के क्षेत्रों में सक्रिय रहने के बाद स्वतंत्र लेखन को ही पूर्णकालिक व्यवसाय बना लिया । हिंदी की लगभग! सभी लब्धप्रतिष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में अर्धशती से उनकी रचनाएँ छपती रही है । अब तक चार हजार से ऊपर रचनाएँ और नब्बे पुस्तकें प्रकाशित । प्रस्तुत पुस्तक उनके पंद्रह वर्षों के लंबे अध्ययन के बाद स्वतंत्रता-संग्राम संबंधी पुस्तक-माला का चौथा श्रद्धा-सुमन है, जो स्वतंत्रता स्वर्ण जयंती पर किशोर जीवन-बलिदानियों और शहीदों को अर्पित तथा वर्तमान नई पीढ़ी को समर्पित है ।
अनेक संस्थागत पुरस्कारों के अलावा ' रचना पुरस्कार ' कलकत्ता, ' अबिकाप्रसाद दिव्य पुरस्कार ' भोपाल, ' कृति पुरस्कार ' हिंदी अकादमी, दिल्ली, ' साहित्य भूषण सम्मान ' उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, ' गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार ' केंद्रीय हिंदी संस्थान ( मानव संसाधन विकास मंत्रालय) से सम्मानित । और हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की सर्वोच्च उपाधि ' साहित्य वाचस्पति ' से विभूषित श्रीमती व्होरा केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा एवं हिंदी अकादमी, । दिल्ली की सदस्य भी रह चुकी हैं ।
स्मृतिशेष : 21 दिसंबर, 2008