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"कहाँ चली गई चुनमुन गौरैया, जो हमारी नानी-दादी की कहानी में चीना सोंवा की बाल टूँगकर खाती थी? भूरी, पीली, धूसर—कई रंगोंवाली छोटी चिडिय़ा। घरों में अपने घोंसले बनानेवाली, काँस के झाड़ में, बाँध, सड़क के किनारेवाले बबूल और कठजिलेबी के पेड़ में डबल स्टोरी घोंसला बनानेवाली दर्जिन गौरैया कहाँ गई? क्या हमारी क्षुधा ने सबको उदरस्थ कर लिया? प्रचंड गरमी, बेहद ठंड ने उसकी जान ले ली? पर्यावरण के असंतुलन ने गला घोंट दिया या खेतों, पौधों पर छिड़के जाने कीटनाशकों ने नष्ट कर दिया? इतने कुछ कारण तो हैं ही, कुछ और भी हो सकते हैं। वह चंचल भोली चिडिय़ा हमारे जीवन से गायब होने लग गई। बाग-बगीचे कटकर, खेत नष्ट कर बिल्डिंगें बन गईं, कहाँ रहेगी गरीब चिडिय़ा? लेकिन संवेदनशील लोगों की टीम ने मिलकर इसे पुन: अपने जीवन में लौटाने के लिए प्रयास किया।
—पद्मश्री उषाकिरण खान
प्रख्यात लेखिका"