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अपनी सगी सास नहीं है। ननद नहीं, देवरानी-जेठानी कोई नहीं है। केले की फली जैसा अकेला किसनिया जनमा था, फिर कोख ही नहीं भरी। अब कहीं जाके किसनिया की गृहस्थी केले की फली जैसी उघड़ती जा रही है। चार बरस तक अकेला किसनिया था और अब तीन जनों का कुटुंब है। तीन-चार महीने बाद एक और बढ़ जाएगा और फिर बरसों तक यही क्रम।...यही सोचते-सोचते आनंदी को अपनी गृहस्थी में सास-ननद, देवरानी-जिठानी का अभाव खलने लगता है। परतिमा ककिया सास है, कभी-कभार कुछ कह-सुन जाती है। उसी के कहे को आँवले के दाने की तरह अपने अंदर लुढ़काती रहती है आनंदी। सपने में भी...और परतिमा सासू कहती हैं कि गर्भिणी को जुड़े हुए नाग नहीं देखने चाहिए। पाप लगता है!
—इसी संग्रह से
सुप्रसिद्ध कहानीकार शैलेश मटियानी अपने विपन्न और उपेक्षित पात्रों के प्रति सहानुभूति एवं गहरी करुणा और पक्षधरता रखते हैं। इसीलिए ये कहानियाँ हमें पीडि़तों की तरफदारी के लिए बाध्य करती हैं। कुत्सित-स्वरूपों के खिलाफ जबरदस्त आक्रोश से भरी पठनीय एवं शिक्षाप्रद कहानियाँ।
जन्म : 14 अक्तूबर, 1931 को अल्मोड़ा जनपद के बाड़ेछीना गाँव में।
शिक्षा : हाई स्कूल तक।
शैलेश मटियानी का अभिव्यक्ति-क्षेत्र बहुत विशाल है। वे प्रबुद्ध हैं, अतः लोक चेतना के अप्रतिम शिल्पी हैं। श्रेष्ठ कथाकार के रूप में तो उन्होंने ख्याति अर्जित की ही, निबंध और संस्मरण की विधा में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। कृतित्व : तीस कहानी-संग्रह, इकतीस उपन्यास तथा नौ अपूर्ण उपन्यास, तीन संस्मरण पुस्तकें, निबंधात्मक एवं वैचारिक विषयों पर बारह पुस्तकें, लोककथा साहित्य पर दस पुस्तकें, बाल साहित्य की पंद्रह पुस्तकें। ‘विकल्प’ एवं ‘जनपक्ष’ पत्रिकाओं का संपादन।
पुरस्कार एवं सम्मान : प्रथम उपन्यास ‘बोरीवली से बोरीबंदर तक’ उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत; ‘महाभोज’ कहानी पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का ‘प्रेमचंद पुरस्कार’; सन् 1977 में उत्तर प्रदेश शासन की ओर से पुरस्कृत; 1983 में ‘फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ पुरस्कार’ (बिहार); उत्तर प्रदेश सरकार का ‘संस्थागत सम्मान’; देवरिया केडिया संस्थान द्वारा ‘साधना सम्मान’; 1994 में कुमायूँ विश्वविद्यालय द्वारा ‘डी.लिट.’ की मानद उपाधि; 1999 में उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा ‘लोहिया सम्मान’; 2000 में केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा ‘राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार’।
महाप्रयाण : 24 अप्रैल, 2001 को दिल्ली में।