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दिल्ली भारत का टिकट धाम है। टिकटार्थी चुनावों के पावन पर्व पर यहाँ तीर्थयात्रा को आते हैं। झुंड-के-झुंड घूमते रहते हैं। टिकट मंदिरों में माथा टेकने जाते हैं। सुबह से शाम तक दर्जनों नेताओं के पास, नेताओं के चमचों के पास दस्तक देते हैं। एक ही पुकार होती है—‘टिकटं देहि, टिकटं देहि।’ उनके विन्यास में सांस्कृतिक झलक होती है। ‘चाणक्य’ धारावाहिक में आपने ब्रह्मचारियों को सुबह-सुबह ही ‘भिक्षां देहि, भिक्षां देहि’ कहते सुना होगा। एक-एक सीट के लिए दस-दस, बीस-बीस टिकटार्थी आते हैं। हर एक के साथ उनका समर्थक मंडल होता है। सभी उम्मीदवारों के पास अपने जीतने के समीकरण होते हैं। लोकसभा चुनाव-क्षेत्र में उनकी जाति के कम-से-कम दो लाख वोट तो होते ही हैं। और किस-किस जाति में कितना समर्थन मिल जाएगा, इसका पूरा हिसाब होता है। जीतने का विश्वास उनमें लबालब भरा होता है। उनके और उनकी जीत के बीच में सिर्फ टिकट बाधा होती है। हफ्तों टिकट साधना करते हैं। मैं ‘साधना’ जानबूझकर कह रहा हूँ। उन्हें न भोजन की याद आती है, न नाश्ते की। न उन्हें नींद आती है, न चैन आता है। साधना में वे टिकटलीन हो जाते हैं। उन्हें देखकर लगता है कि भारत सचमुच ही एक आध्यात्मिक देश है। जो टिकटलीन हो सकता है, वह ईश्वर में भी ओत-प्रोत हो सकता है।
—इसी पुस्तक से
ये व्यंग्य अपनी पठनीयता के दावेदार तब भी थे, जब अखबार के माध्यम से लाखों मन को छू रहे थे और अब भी हैं, जब पुस्तक के कलेवर में आपके हाथों में हैं।
जन्म : 14 सितंबर, 1937, जोधपुर।
शिक्षा : एम. ए. (गोल्ड मैडल)।
श्री मिश्र पत्रकारिता के क्षेत्र में सन् 1962 में ही आ गए थे। सन् 1967 से लेकर 1974 तक वह ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक के साथ दिल्ली में रहे। पहले सहायक संपादक और अंतिम तीन वर्ष प्रधान संपादन। आपातकाल में वह जेल में रहे। ‘नवभारत टाइम्स’ में डेढ़ दशक तक ब्यूरो चीफ और स्थानीय संपादक आदि रहे। सन् 1 9 9 1 से लेकर अब तक वह स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय रहे हैं। इस बीच उनके कॉलम देश के पच्चीस समाचारपत्रों में प्रकाशित होते रहे हैं। जुलाई 1 9 9 8 में वह उत्तर प्रदेश से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए। उन्होंने ‘आर.एस.एस. : मिथ एंड रियलिटी’ सहित आधा दर्जन पुस्तकों की रचना की है। सन् 1977 में उन्होंने श्री अटल बिहारी वाजपेयी की आपातकाल में लिखी गई ‘कैदी कविराय की कुंडलियाँ’ का संपादन किया। आपातकाल में ‘गुप्तक्रांति’ नामक पुस्तक भी लिखी। ‘हर-हर व्यंग्ये’ और ‘घर की मुरगी’ नामक दो संकलन प्रकाशित। वह अपने को पत्रकार ही मानते हैं, साहित्यकार होने का दावा नहीं करते। इसी तरह राज्यसभा का सदस्य होने के बावजूद वह अपने को राजनेता नहीं मानते। उनका नियमित लेखन जारी है।