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जिस समय इस उपन्यास का प्रथम संस्करण बँगला में प्रकाशित हुआ था, उस समय एक तहलका सा मच गया था और इसे खतरे की चीज समझकर ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तक को जब्त कर लिया था। यह उपन्यास इतना महत्त्वपूर्ण समझा गया कि विश्व-कवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने भी शरतबाबू की इस रचना की मुक्त-कंठ से प्रशंसा की। अब तक इस महत्त्वपूर्ण उपन्यास का हिंदी में कोई अच्छा अनुवाद प्रकाशित नहीं हुआ था। उसी अभाव की पूर्ति के लिए हमने सरल, सुंदर अनुवाद--' पथ के दावेदार ' के नाम से प्रकाशित किया है | इसमें पाठकों को पढ़ने से वही आनंद मिलेगा, जो शरतबाबू की मूल पुस्तक पढ़ने से मिलता है