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‘दिव्य प्रेम सेवा मिशन’ की कल्पना जैसे अनायास ही साकार हुई, वैसे ही मेरा उससे जुड़ना भी अनायास ही था। आत्म-साक्षात्कार के लिए निकले एक साधक के सामने अचानक कुष्ठ रोगियों के रूप में समाज खड़ा हो गया और ‘दिव्य प्रेम मिशन’ का जन्म हुआ।
इस पुस्तक में पहाड़ों की संवेदनशीलता और पीड़ा की बातें हैं, जिन्हें हमारे पूर्वजों ने अरण्य नाम दिया, उन पर समाज और शासन के बीच तलवारें खिंचने की आशंकाएँ हैं, हिमानियों के लुप्त होने के खतरे, विकास के नाम पर प्रकृति के दोहन को शोषण में बदलने के कुचक्रों की दास्तान हैं। तीर्थों को निगलते पर्यटन स्थल, मलिनता के बीच तीर्थों की पवित्रता के दावे, अपनों से ही त्रस्त गंगा और ऐसी ही अनेक विचारणीय बातें हैं। बीच-बीच में महान् परिव्राजक विवेकानंद, योगी अरविंद, युगांतरकारी बुद्ध और स्वच्छता के पुजारी गांधी सरीखे लोगों की याद भी आती रही; जो पाथेय मिला, वह भौतिक नहीं, बौद्धिक और आध्यात्मिक था। वह बाँटकर ही फलित होता है, इसलिए आपके सामने है।
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अनुक्रम
भूमिका — Pgs. 5
खंड : एक
मिशन
1. संवेदनशील समाज — Pgs. 19
2. ऐसे हुआ, इस मिशन का जन्म — Pgs. 22
3. सेवा का फल, सेवा ही है — Pgs. 27
4. उदासीन समाज होगा तो सरकार भी उदासीन ही होगी — Pgs. 29
खंड : दो
क्षम्यताम
5. हमने तुम्हें बेच दिया गंगा माँ — Pgs. 35
6. गंगा को अपनों ने ही छला है — Pgs. 41
7. जब दासी भी विद्रोह कर देती है — Pgs. 47
8. इस त्रासदी से हमने कुछ सीखा? — Pgs. 52
9. पर्यावरण की चिंता किसे है? — Pgs. 55
10. अपनी संपत्ति की पहचान — Pgs. 59
11. इस चुनाव में नदियों, वनों और पहाड़ों की भी सुनें — Pgs. 62
12. पर्यावरण का भारतीय दृष्टिकोण — Pgs. 67
खंड : तीन
धर्म और संस्कृति
13. मिथक तोड़ने का समय आ गया है — Pgs. 75
14. प्रकृति की कोख में जन्मी है भारतीय संस्कृति — Pgs. 80
15. धर्म संस्थापनार्थाय — Pgs. 83
16. अमृत की कुछ बूँदों के लिए — Pgs. 87
17. गौ-रक्षा और ग्राम-रक्षा — Pgs. 91
18. मानस के दर्पण में कैलाश का स्फटिक — Pgs. 94
खंड : चार
संत, योगी, दार्शनिक और बुद्ध
19. सेवा योग के महायोगी — Pgs. 101
20. योगी अरविंद की भविष्य दृष्टि — Pgs. 104
21. शंकराचार्य आज भी प्रासंगिक हैं — Pgs. 107
22. भारतीय संस्कृति के रक्षक थे महात्मा बुद्ध — Pgs. 111
23. कथा उनके लिए एक साधन मात्र है — Pgs. 115
24. आनंदविहीन पश्चिम में भारतीय संत — Pgs. 118
खंड : पाँच
विविधा
25. तय करना होगा, युवा का लक्ष्य — Pgs. 125
26. 1857 के विद्रोह की असफलता की सीख — Pgs. 128
27. वे आजादी की नींव के पत्थर बने — Pgs. 133
28. मध्यप्रदेश : जो यहाँ है और कहीं नहीं — Pgs. 136
29. संबंधों की व्यापकता से बनता है व्यक्तित्व — Pgs. 140
30. अस्थायित्व की आँधी में कैसे टिके रहें? — Pgs. 143
31. हम, अंग्रेज और पश्चिमी सभ्यता — Pgs. 146
32. पर्यटन उत्तराखंड का केंद्रीय कर्म है — Pgs. 150
33. सुशासन चाहते हैं तो
अपने ही तौर-तरीके विकसित करें — Pgs. 154
34. स्वच्छता अभियान का श्रीगणेश हम खुद से करें — Pgs. 157
35. मानव संसाधन हैं, लेकिन शिक्षा कहाँ है? — Pgs. 160
36. किताबी शिक्षा ही नहीं, हाथों का हुनर भी चाहिए — Pgs. 164
26 अगस्त, 1937 को जम्मू-कश्मीर के एक सुदूर क्षेत्र में जन्म। श्रीनगर में एम.ए. तक की शिक्षा प्राप्त की।
श्रीनगर के ही एक स्कूल में अध्यापक हो गए। तभी हिंदुस्थान समाचार के श्री बालेश्वर अग्रवाल ने अपनी समाचार समिति में उन्हें एक प्रशिक्षु पत्रकार रख लिया। अगले वर्ष अज्ञेयजी ने अपने नए प्रयोग ‘दिनमान’ के लिए उन्हें चुना। दो दशक तक ‘दिनमान’ के साथ काम करने के पश्चात् ‘जनसत्ता’ दैनिक में श्री प्रभाष जोशी के सहयोगी बने।
80 वर्ष की उम्र में भी उनका लिखना जारी है। उनका मानना है कि जब तक व्यक्ति जीवित है, उसके सोचने पर पूर्ण विराम तो नहीं लगता। सोचने पर नहीं लगता तो कहने-लिखने पर क्यों लगेगा? लिखना जीवन का लक्षण है, उसकी प्रासंगिकता है। अपनी पुस्तक ‘हिंदी पत्रकारिता का बाजार भाव’ में वे लिखते हैं कि पत्रकारिता अब एक ऐसा उद्योग हो गया है, जहाँ प्रमुख संचालक विज्ञापनदाता हो गया है, जो न तो पाठक है, न संपादक और न ही संस्थापक।
उन्हें वर्ष 2016 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया।