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भारत में समाचार-पत्रों का उद्भव और स्वतंत्र पत्रकारिता पर अंकुश एवं प्रताड़ना का सिलसिला लगभग साथ-साथ शुरू होते हैं। सन् 1962 में चीनी आक्रमण के समय प्रेस पर कुछ बंदिश लगी थी, परंतु जून 1975 में देश पर थोपा गया लोकतंत्र का हत्यारा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा मानव अधिकारों का हंता आपातकाल भारतीय प्रेस के खिलाफ सबसे काले अध्याय के रूप में याद किया जाएगा। उस दौर में न केवल प्रेस की आजादी का गला घोंटा गया, बल्कि प्रेस की कायर मनोवृत्ति ने हमेशा के लिए उसका सिर झुका दिया। यह और बात है कि आपातकाल के बाद उसके लिए जिम्मेदार सत्ताधीशों ने खेद जताया था, परंतु सत्ता का चरित्र और स्वतंत्र प्रेस की बाँहें मरोड़ने की मनोवृत्ति नहीं बदली। प्रस्तुत पुस्तक पत्रकारिता के विद्यार्थियों और नवोदित पत्रकारों को पत्रकारिता पर अंकुश लगाने की मनोवृत्ति और कोशिशों तथा उसके निहितार्थों और फलितार्थों से परिचित कराती है। साथ ही उन्हें सावधान भी करती है कि निर्भीक और स्वतंत्र प्रेस होने की सबसे बड़ी गारंटी उसका जिम्मेदार प्रेस होना ही है। प्रतिरोध प्रेस का आवश्यक गुण है, जिसे हर कीमत पर कायम रखा जाना चाहिए। साथ ही, असहमति के स्वरों को भी प्रेस में पर्याप्त स्थान मिलना चाहिए। पत्रकारिता की स्वतंत्रता का उद्घोष, लोकहित के प्रति सचेत करती एक पठनीय पुस्तक।
जनसत्ता, अमर उजाला, सहारा समय, जी न्यूज, इंडिया टीवी, सी.एन.ई.बी. में विभिन्न दायित्वों का निर्वहण करनेवाले अमरेंद्र कुमार राय पत्रकारिता में विगत तीस वर्षों से सक्रिय हैं। प्रमुख हिंदी पत्रों में उनके सैकड़ों आलेख प्रकाशित हुए हैं। संप्रति दिल्ली में स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्यरत।