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इन पेशेवर पत्थर-फेंकुओं की एक और खासियत है कि बड़े होकर ऐसे नन्हे फूस में आग लगाकर चंपत होने में पारंगत हैं। उन्हें नजर बचाकर पत्थर फेंकने का बचपन से अभ्यास है और किसी भी ऐसी वारदात में भाग लेकर भाग लेने का भी। अनुभव के साथ इनमें से कुछ शारीरिक को तज कर शाब्दिक प्रहार में महारत हासिल करते हैं। ऐसों के करतब संसद्, विधानसभा और सार्वजनिक सभाओं की शोभा और आकर्षण हैं।
पत्थर फेंकना कुछ का पेशा है तो बाकी का शौक। जब कोई अन्य निशाना नहीं मिलता है तो लोग एक-दूसरे पर पत्थर फेंकते हैं। कई सियासी पुरुषों का यह पूर्णकालिक धंधा है। साहित्यकार भी इससे अछूते नहीं हैं। कुछ लेखन में जुटे हैं तो चुके हुए दूसरों पर पत्थर फेंकने में। कभी मौखिक, कभी लिखित शाब्दिक पत्थर का प्रहार बुद्धिजीवियों का मानसिक मर्ज है। कभी-कभी लगता है कि इसके अभाव में उन्हें साँस कैसे आएगी?
—इसी पुस्तक से
हिंदी के वरिष्ठ लोकप्रिय व्यंग्यकार श्री गोपाल चतुर्वेदी के व्यंग्यों का यह नवीनतम संग्रह है। हमेशा की तरह समाज में फैली कुरीतियों, बढ़ते भ्रष्टाचार एवं उच्छृंखलता और राष्ट्र-समाज के हितों को ताक पर रखकर भयंकर स्वार्थपरतावाले माहौल पर तीखी चोटें मारकर वे हमें गुदगुदाते हैं, खिलखिलाने पर मजबूर करते हैं, पर सबसे अधिक हमें झकझोरकर जगा देते हैं।
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अनुक्रम
1. बचुआ, पलाश और लालबत्ती —Pgs.9
2. कैसे हो सड़क का नामकरण —Pgs.14
3. पलटू खुश क्यों होते हैं? —Pgs.20
4. चौटिल्य का शिक्षाशास्त्र —Pgs.26
5. मक्खी और आदमी —Pgs.32
6. सफलता के सूत्र और अंग्रेजी की अनिवार्यता —Pgs.38
7. स्वच्छ भारत अभियान के खतरे —Pgs.44
8. इक्कीसवीं सदी का प्लास्टिकी सौंदर्य-बोध —Pgs.51
9. सबकुछ माया है —Pgs.57
10. भारत भिक्षा शिक्षा संस्थान —Pgs.62
11. जमीन से जुड़े इनसान और नेता —Pgs.68
12. भारत का नया मुखौटा उद्योग —Pgs.75
13. अतीत के खँडहर —Pgs.80
14. दीवाल पर टँगा आदमी —Pgs.87
15. अपने-अपने भूकंप —Pgs.93
16. वे मुसकराते क्यों नहीं हैं? —Pgs.99
17. खोट खोज के खर-दूषण —Pgs.104
18. दाढ़ी और देश —Pgs.110
19. आजादी है फ्रीगीरी में —Pgs.115
20. जनतंत्र से जाततंत्र की ओर —Pgs.122
21. बलिहारी गुरु आपकी! —Pgs.127
22. वसंत कौन है? —Pgs.133
23. ठेकेदार का धर्म —Pgs.138
24. साँझ के समझौते —Pgs.144
25. किस्सा कूडे़दान का —Pgs.151
26. सत्तापुर के नकटे —Pgs.158
27. इनसान का सूरज बनने का स्वप्न —Pgs.164
28. कमिश्नर का पर्स गुमा —Pgs.169
29. मुरगे का मुगालता —Pgs.176
30. आजादी के बाद इंतजार के आयाम —Pgs.182
31. फुटपाथ के रैन बसेरे —Pgs.187
32. दुर्घटना, सड़क और अफसर —Pgs.191
33. आज की मुखौटा सदी —Pgs.197
34. पत्थर फेंको, सुखी रहो —Pgs.203
गोपाल चतुर्वेदी का जन्म लखनऊ में हुआ और प्रारंभिक शिक्षा सिंधिया स्कूल, ग्वालियर में। हमीदिया कॉलेज, भोपाल में कॉलेज का अध्ययन समाप्त कर उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. किया। भारतीय रेल लेखा सेवा में चयन के बाद सन् १९६५ से १९९३ तक रेल व भारत सरकार के कई मंत्रालयों में उच्च पदों पर काम किया।
छात्र जीवन से ही लेखन से जुड़े गोपाल चतुर्वेदी के दो काव्य-संग्रह ‘कुछ तो हो’ तथा ‘धूप की तलाश’ प्रकाशित हो चुके हैं। पिछले ढाई दशकों से लगातार व्यंग्य-लेखन से जुड़े रहकर हर पत्र-पत्रिका में प्रकाशित होते रहे हैं। ‘सारिका’ और हिंदी ‘इंडिया टुडे’ में सालोसाल व्यंग्य-कॉलम लिखने के बाद प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘साहित्य अमृत’ में उसके प्रथम अंक से नियमित कॉलम लिख रहे हैं। उनके दस व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें तीन ‘अफसर की मौत’, ‘दुम की वापसी’ और ‘राम झरोखे बैठ के’ को हिंदी अकादमी, दिल्ली का श्रेष्ठ ‘साहित्यिक कृति पुरस्कार’ प्राप्त हुआ है।
भारत के पहले सांस्कृतिक समारोह ‘अपना उत्सव’ के आशय गान ‘जय देश भारत भारती’ के रचयिता गोपाल चतुर्वेदी आज के अग्रणी व्यंग्यकार हैं और उन्हें रेल का ‘प्रेमचंद सम्मान’, साहित्य अकादमी दिल्ली का ‘साहित्यकार सम्मान’, हिंदी भवन (दिल्ली) का ‘व्यंग्यश्री’, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का ‘साहित्य भूषण’ तथा अन्य कई सम्मान मिल चुके हैं।