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पूरब के झरोखे’ भारत की अक्षयौवना संस्कृति की निर्बाध यात्रा के विभिन्न अयामों का आकलन-अनुशीलन है। इसमें वैदिक-अवैदिक चिंतन-प्रवाहों के अंतर्गत वेद-वेदांग, उपनिषद्-पुराण, महाकाव्य, आत्मवादी और अनात्मवादी दर्शनों की झाँकी प्रस्तुत की गई है। लौकिक संस्कृति के प्रतिनिधि कवि कालिदास की चर्चा है।
मध्ययुग की तंत्र-साधना, भक्ति-भागवत आंदोलन, आत्मा-परमात्मा और तीनमूर्ति के स्वरूपों के विवेचनों से पुस्तक का कलेवर समृद्ध है। ‘इक्कीसवीं सदी’ तथा पिछली शताब्दियों का पुनरावलोकन है, वस्तुत: सांस्कृतिक क्षरण, पश्चिमी अनुकरण तथा भक्ति के अवमूल्यन-विरूपण की व्यथा-कथा चिंतन बिंदुओं और चिंतकों को झकझोरती है, जगाती है।
...और यही तो हमारा सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य है, जैसा पूरब के झरोखों में देखा गया है। सामान्य पाठकों का संस्कृति के तमाम पड़ावों से संक्षिप्त परिचय कराती महत्त्वपूर्ण पुस्तक।
जन्म : 24 मार्च, 1943 बिहार के बक्सर जिलांतर्गत रहथुआ ग्राम में।
शिक्षा : एम.ए., एल-एल.बी. (कलकत्ता विश्वविद्यालय)।
कृतियाँ : ‘पच्छिम के झरोखे’ (यात्रा वृत्तांत), ‘जो नहीं लौटे’, ‘बाबा की धरती’ तथा ‘गंगा के पार-आर’ (उपन्यास), ‘जाहि राम पद नेह’ (रामायण पर आधारित)।
यात्राएँ : रूस, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, स्विट्जरलैंड आदि।
एक कर्मठ व्यक्तित्व, एक अरसे तक बक्सर में वकालत तथा लंदन में अवकाश प्राप्त।
जन्म : 15 फरवरी, 1967 रहथुआ, बक्सर (बिहार)।
शिक्षा : स्नातक (कलकत्ता विश्वविद्यालय)।
अभिरुचि : सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में लगाव। वर्तमान में लंदन में कार्यरत।