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कहानीकार का संवेदन संस्कार के रूप में अपने परिवेश को ग्रहण करता है । वह उसी में जीता है, साँस लेता है । प्रवासी लेखक अपने घर-परिवार, देश और मिट्टी से अलग होकर एक अन्य देश-काल और परिवेश में चला जाता है । वहाँ उसके नए संस्कार बनते हैं, नए दृष्टिकोण बनते हैं । माहौल बदल जाने से उसकी जिंदगी में बहुत सी पेचीदगियों आ जाती हैं । उसकी मान्यताएँ बदलने लग जाती हैं । यहीं द्वंद्व के आरंभ का प्रारंभ होता है । और यहीं कहानियाँ जन्म लेती हैं ।..
ये कहानियों भारतीय मूल्यों और मान्यताओं के चौखटे में संभवतः सही नहीं बैठेंगी; परंतु इन मूल्यों और मान्यताओं कै कारण ही एक परिवेश का साहित्य दूसरे परिवेश के साहित्य से अलग नहीं हो जाता । इन कहानियों के भीतर रिसी हुई गहरी मानवीय संवेदना उन्हें एक - दूसरे से जोड़े रखती है । सात समंदर पार होने पर भी यही मानवीयता इन कहानियों को समयातीत, कालेतर और समयसापेक्ष बनाती है ।
हिंदी के प्रचार- प्रसार से जुडीं उषा राजे सक्सेना का लेखन ( हिंदी व अंग्रेजी में) इस सदी के सातवें दशक में साउथ लंदन के स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं एवं रेडियो प्रसारण के द्वारा प्रकाश में आया । तदनंतर आपकी कविताएँ कहानियाँ एवं लेख भारत, अमेरिका और यूरोप के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे । आपकी कई रचनाएँ विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवादित हो चुकी हैं । कुछ रचनाएँ जापान के ओसाका विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं ।
आप ब्रिटेन की एकमात्र हिंदी साहित्यिक पत्रिका ' पुरवाई ' ( त्रैमासिक) की सह-संपादिका तथा हिंदी समिति, यू.के. की उपाध्यक्ष हैं । तीन दशक तक आप ब्रिटेन के बॉरो ऑफ मर्टन की शैक्षिक संस्थाओं में विभिन्न पदों पर कार्यरत रही हैं ।
विगत वर्षों में भारत की विभिन्न संस्थाओं में आपको प्रवास में हिंदी साहित्य और उसके प्रचार-प्रसार सेवा के लिए सम्मानित एवं पुरस्कृत किया गया । प्रमुख कृतियाँ : ' विश्वास की रजत सीपियाँ ', ' इंद्रधनुष की तलाश में ' ( काव्य- संग्रह); ' मिट्टी की सुगंध ' ( ब्रिटेन के प्रवासी भारतवंशी लेखकों का प्रथम कहानी- संग्रह), ' प्रवास में...' ( कहानी-संग्रह) ।