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यत्र-तत्र मेरे लेखन में लोक संस्कृति के सूत्रों को पढ़कर ही ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक पत्रिका के संपादक ने अपनी पत्रिका में मुझे एक विषेश स्तंभ लिखने के लिए कहा था। मैंने उनका भाव समझकर स्तंभ का परिचय लिख दिया था। नाम दिया था—‘सरोकार’। उन्हें वह पसंद आ गया। उन्होंने कहा, आपने मेरे मन के भाव पढ़ लिये। अब लिखना प्रारंभ करिए। लोकजीवन में व्याप्त आँगन, चाँद मामा, दादा-दादी, पाहुन, पगड़ी, झुंगा, गोबर, गाय, गाँव की बेटी, छतरी से लेकर झाड़ू तक लिख डाले। तीन वर्षों में सैकड़ों विषयों के मानवीय सरोकार। पाञ्चजन्य की पहुँच देश के कोने-कोने से लेकर विदेशों में भी है। सभी स्थानों से पाठकों के प्रशंसा नहीं, प्रसन्नता के स्वर मुझे भी सुनाई देने लगे। मैं समझ गई, हमारी लोकसंस्कृति जो संपूर्ण भारतीय संस्कृति की आधार है, लोक के हृदय में जीवित है। जिन लोकों का संबंध ग्रामीण जीवन से अब नहीं है, उन्होंने भी बचपन में देखे-सुने रस्म-रिवाज और जीवन व्यवहार की स्मृतियाँ हृदय में संजोए रखी हैं। पाठकों की सराहना ने मुझे उन सरोकारों को चिह्नित करने का उत्साह दिया। मैं लिखती गई। काकी के आम वृक्ष पर कौआ, ईआ के आँगन के कोने का झाड़ू, उसी आँगन के बड़े कोने में रखी लाठियाँ, आम का बड़ा वृक्ष और बड़ा चाँद, सबकुछ जीवंत हो जाता था और उन सबके साथ काकी, भैया, चाचा-चाची, बाबूजी-ईआ के संग नौकर-नौकरानियों की स्मृतियाँ भी। फिर तो आँखें भरनी स्वाभाविक थीं। कभी-कभी उनकी स्मृतियों की जीवंत उपस्थिति के कारण आँखों के सामने से धुँधलका छँटे ही नहीं। छाँटने की जरूरत भी क्या थी। संपूर्ण लोकसंस्कृति उन्हीं के कारण तो विस्मृत नहीं हुई है। उम्र बढ़ने के साथ ‘आत्मवत् सर्वभूतेषू’ पढ़ा-समझा। अपने अंदर झाँककर देखा तो समझ आई कि अपने चारों ओर के पशु-पक्षी, पेड़-पौधों, नदी-पहाड़ को अपने परिवार के अंग समझने की दृष्टि तो काकी, ईआ क्या गाँव के गरीब गुड़वा के व्यवहारों ने भी दी थी। इस मंत्र को स्मरण करने की भी क्या जरूरत, जो हमारी नस-नस में व्याप्त है। लोकसंस्कृति के माध्यम से भारतीय संस्कृति को समझना सरल हो जाता है। संस्कृति भाव है और व्यवहार भी। भारतीय संस्कृति के भाव का व्यवहार ही रहा है लोकाचार। मैं उन पाठकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ, जिन्होंने कलम को चलते रहने की शक्ति दी। हमारी वर्तमान और आनेवाली पीढ़ी इन सरोकारों को पढ़े तो मेरी लेखनी धन्य-धन्य होगी। लेखन का उद्देश्य उन बुझते हुए दीपक की लौ को सँजोना ही है। पेड़-पौधे, धान, आग और पानी भी तो हम अगली पीढ़ी के लिए सँजोकर रखते हैं, फिर लोक संस्कार क्यों नहीं? हमारी संस्कृति भी तो रिलेरेस के समान है। मेरे पौत्र-पौत्रियाँ अपनी पौत्र-पौत्रियों को प्रकृति के साथ मानवीय सरोकारों को स्मरण कराती रहेंगी, तभी तो संस्कृति प्रवाहमय रहेगी। यही उद्देश्य रहा है इस पुस्तक लेखन का।
डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी भारत के अग्रणी संविधान विशेषज्ञ, लेखक, कवि, संपादक, भाषाविद् और साहित्यकार हैं । भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों और अमेरिका के हॉर्वर्ड, कॉर्नेल तथा बर्कले विश्वविद्यालयों से पढ़ने-पढ़ाने के लिए संबद्ध रहे । अनेक भारतीय तथा विदेशी विश्वविद्यालयों द्वारा सर्वोच्च मानद उपाधियों से अलंकृत । ' न्यायवाचस्पति ', ' साहित्यवाचस्पति ' इत्यादि मानद उपलब्धियों से भी समलंकृत । वर्ष 1974 में कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा मानद टैगोर विधि प्रोफेसर के रूप में चयन ।
लगभग 70 पुस्तकों की रचना या संपादन किया, जिनमें प्रमुख हैं-' जैन टेंपल्स इन ऐंड अराउंड द वर्ल्ड ', ' डेमोक्रेसी एंड रूल ऑफ लॉ ', ' टुवर्ड्स ग्लोबल टुगेदरनेस ', ' टुवर्ड्स ए न्यू ग्लोबल ऑर्डर ', ' ए टेल ऑफ श्री सिटीज ', ' फ्रीडम ऑन ट्रायल ', ' भारत और हमारा समय ', ' संध्या का सूरज ' ( कविताएँ) आदि ।
1998 में प्रतिष्ठित ' पद्म विभूषण ' से सम्मानित । सन् 1991 से 1998 तक यूनाइटेड किंगडम में भारत के उच्चायुक्त रहे । रोटरी इंटरनेशनल के ' एंबेसेडर ऑफ एक्सीलेंस पुरस्कार ' तथा न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र संघ के महामंत्री यू थांट के नाम से स्थापित ' शांति पुरस्कार ' से सम्मानित । हेग में स्थायी विवाचन न्यायालय के न्यायमूर्ति ।
वर्ष 1962 में जोधपुर संसदीय क्षेत्र से निर्दलीय चुने गए । 1998 से 2004 तक राज्यसभा के सदस्य रहे ।
भारतीय विद्या भवन इंटरनेशनल, इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स तथा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के पूर्व अध्यक्ष । जमनालाल बजाज एवं ज्ञानपीठ पुरस्कारों के प्रवर मंडलों तथा गांधीजी द्वारा स्थापित सस्ता साहित्य मंडल के अध्यक्ष । 1200 से अधिक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के संरक्षक-संस्थापक ।
संप्रति : ' साहित्य अमृत ' मासिक के संपादक ।