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पुस्तकालय और समाज ' ऐसा विषय है जिस पर हिंदी भाषा में कोई खास साहित्य उपलब्ध नहीं है । इसके विपरीत अंग्रेजी में इस विषय पर विपुल साहित्य लिखा गया है । इसका कारण यह प्रतीत होता है कि इंग्लैंड तथा अमरीका में पाठकों और पुस्तकालयों के बीच बहुत पहले नैकट्य स्थापित हो चुका था । आजादी के बाद हमारे देश में भी सार्वजनिक पुस्तकालयों के प्रति जागरूकता आई । पुस्तकालय और ' समाज ' तथा ' समाज ' और पुस्तकालय एक-दूसरे केनिकट आने लगे । आज पुस्तकालय हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है और पुस्तकालयों से हमारा संबंध अधिक गहरा हुआ है । प्रस्तुत पुस्तक में इस संबंध के विविध आयामों का विश्लेषण किया गया है, और उन उपायों की व्याख्या की गई है जिनको अपनाकर पुस्तकालय लोगों के और निकट आ सकते हैं ।
हमारा विश्वास है कि यह पुस्तक सार्वजनिक पुस्तकालयों, पुस्तकालयाध्यक्षों, पुस्तकालय विज्ञान के विद्यार्थियों एवं शिक्षकों तथा सामान्य पाठक यानी हम सबके लिए उपयोगी सिद्ध होगी ।
डॉ. पांडेय सूरज कांत शर्मा ने पुस्तकलय विज्ञान की शिक्षा पटना, दिल्ली तथा पंजाब विश्वविद्यालयों (एम. लिब. एस-सी., पी- एच.डी.) से प्राप्त की । इसके अतिरिक्त उन्होंने राँची विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. तथा पी-एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं । पुस्तकालय विज्ञान की पत्रिकाओं में प्रकाशित प्रतिवेदनों के अनुसार डी. पांडेय भारत में पुस्तकालय विज्ञान में पी-एच.डी. करनेवाले द्वितीय तथा दो विषयों में पी- एच.डी. (हिंदी तथा पुस्तकालय विज्ञान) करनेवाले प्रथम पुस्तकालय विज्ञानी हैं ।
उनकी लगभग एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा पुस्तकालय विज्ञान से संबंधित उनके लेख देश- विदेश की पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं । वह पुस्तकालय तथा पुस्तकालय विज्ञान पर गठित अनेक अखिल भारतीय समितियों के सदस्य रहे हैं ।
डॉ. पांडेय राजा राममोहन राय पुस्तकालय प्रतिष्ठान, कलकत्ता में क्षेत्र पदाधिकारी (फील्ड ऑफीसर), आगरा विश्वविद्यालय में रीडर तथा अध्यक्ष ( पुस्तकाल्य विज्ञान विभाग) और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) में पुस्तकालयाध्यक्ष, योजना आयोग में मुख्य पुस्तकालयाध्यक्ष एवं प्रलेखन अधिकारी तथा इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में प्रोफेसर के वेतनमान में पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में वर्षों कार्य कर चुके हैं ।
संप्रति : विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में वरिष्ठ पुस्तकालय एवं सूचना अधिकणि ।