₹300
"जमुना बाजार की झुग्गियों में पिछले जेठ के महीने में आग लग गई थी। रात को सिर छुपाने का आसरा भी जाता रहा। अब कंजिया साड़ी शोरूम के बाहर गलियारे में ही सोता है, लेकिन गलियारे में चार फुट जगह कौन मुफ्त में मिली है। ठेकेदार को आठ सौ रुपया महीना देना पड़ता है।
हवा इतनी भारी हो चली थी कि पत्ते भी हिलने से डरते थे। रात घिरने वाली थी। खेतों की पगडंडी से होती एक बैलगाड़ी नारायणदास की बैठक के बाहर आकर रुकी, पर बैलगाड़ी से गाड़ीवान नहीं उतरा। पीछे दूर तक पगडंडी की रेत बहते खून से गीली हो चुकी थी।
नारायणदास की लाश बैलगाड़ी में पड़ी थी। गाँव वालों का खून खौल उठा। फैसला करने में कोई देरी नहीं हुई। पड़ोसी गाँव के मुसलमानों ने ही मारा होगा, किसी को इस बात में शक न था। अब गाँव के लोग नारायणदास की मौत का बदला लेना चाहते थे और रब्बी निशाने पर था।
—इसी पुस्तक से
इन कहानियों को पढक़र पाठकीय संवेदनशीलता और करुणा का भाव जाग्रत् होगा, यह विश्वास है और पुस्तक के लेखन-प्रकाशन का प्रयोजन भी।"