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भारतीय संविधान में ‘राजभाषा’ के रूप में हिंदी को स्वीकृति मिले काफी समय हो गया है; किंतु अभी तक इससे संबद्ध सारी बातें पुसतक रूप में नहीं आ सकी हैं। प्रसिद्ध भाषा-शास्त्री डॉ. भोलानाथ तिवारी ने इस पुस्तक में पहली बार राजभाषा के रूप में हिंदी के उद्भव, विकास, उसकी वर्तमान स्थिति तथा उसके मानकीकरण, आधुनिकीकरण एवं अन्य समस्याओं को विस्तार से लिया है; साथ ही उन समस्याओं के समाधान के लिए यथास्थान सुझाव भी दिए हैं।
राजभाषा से राष्ट्रलिपि की समस्या भी जुड़ी है। अत: यहाँ नागरी लिपि के ऐसे रूप पर भी विस्तार से विचार किया गया है, जो सभी भारतीय भाषाओं के लेखन में प्रयुक्त हो सके। इसमें परिवर्द्धित देवनागरी के अनेक चार्ट दिए हैं, जिनसे भारत की सभी लिपियों के साथ इसका तुलनात्मक अध्ययन सुगम हो गया है।
पुस्तक का यह दूसरा संस्करण है — पूरी तरह संशोधित और परिवर्द्धित। इसमें अनेक नई चीजें जुड़ने से पहले संस्करण की तुलना में इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है।
डॉ. भोलानाथ तिवारी ४ नवंबर, १९२३ को गाजीपुर (उ.प्र.) के एक अनाम ग्रामीण परिवार में जनमे डॉ. तिवारी का जीवन बहुआयामी संघर्ष की अनवरत यात्रा थी, जो अपने सामर्थ्य की चरम सार्थकता तक पहुँची। बचपन से ही भारत के स्वाधीनता-संघर्ष में सक्रियता के सिवा अपने जीवन-संघर्ष में कुलीगिरी से आरंभ करके अंततः प्रतिष्ठित प्रोफेसर बनने तक की जीवंत जय-यात्रा डॉ. तिवारी ने अपने अंतरज्ञान और कर्म में अनन्य आस्था के बल पर गौरव सहित पूर्ण की। हिंदी के शब्दकोशीय और भाषा-वैज्ञानिक आयाम को समृद्ध और संपूर्ण करने का सर्वाधिक श्रेय मिला डॉ. तिवारी को। भाषा-विज्ञान, हिंदी भाषा की संरचना, अनुवाद के सिद्धांत और प्रयोग, शैली-विज्ञान, कोश-विज्ञान, कोश-रचना और साहित्य-समालोचना जैसे ज्ञान-गंभीर और श्रमसाध्य विषयों पर एक से बढ़कर एक प्रायः ८८ ग्रंथरत्नों का सृजन कर उन्होंने कृतित्व का कीर्तिमान स्थापित किया।
६६ वर्ष की आयु में २५ अक्तूबर, १९८९ को उनका निधन हो गया।