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‘रामायण’ भारतीय वाड्मय का श्रेष्ठ एवं अद्भुत ग्रंथ है। यह भारतीय जन-मानस में गहराई से रच-बस गया है। इसकी लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया की अधिकतर भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। लगभग सभी भारतीय भाषाओं में रामायण रची गई हैं या रामायण से संबद्ध ग्रंथ लिखे गए हैं।रामायण का कर्तव्यनिष्ठा पर विशेष जोर और आग्रह है। प्रत्येक मनुष्य—चाहे वह स्त्री है या पुरुष अथवा बाल; वह नौकर है या मालिक अथवा शासक है या सेवक—इतना ही नहीं, माता-पिता, पुत्र, भाई, सखा और शत्रु—रामायण में सबके कर्तव्यों का आदर्श उपस्थित किया गया है। जीवन में क्या-क्या करना चाहिए या क्या करणीय है—यह रामायण बतलाती है।
प्रस्तुत पुस्तक में रामकथा मर्मज्ञ दाजी पणशीकर ने रामायण के ऐसे 51 प्रसंगों की व्याख्या की है, जो बहु प्रेरक एवं मार्गदर्शन करने वाले हैं। भगवत्-प्रेमी ही नहीं, सभी खास और आम के लिए एक पठनीय पुस्तक।
1 मई 1834 को जनमे दाजी पणशीकर (मूल नाम नहरिविष्णु शास्त्री) ने औपचारिक स्कूली शिक्षा के बाद व्याकरणाचार्य पिताश्री विष्णु शास्त्री से घर में ही वेदों की शिक्षा, साथ ही पं. श्रीपादशास्त्री किंजवडेकर से संत साहित्य एवं उपासना शास्त्र की विधिवत् शिक्षा ग्रहण की। प्रमुख संपादित ग्रंथ हैं : ‘एकनाथांचे भावार्थ रामायण-2 खंड’ जिसके दस संस्करण निकल चुके हैं। ‘श्रीनाथांचे आठ ग्रंथ’; प्रमुख टीका ग्रंथ : ‘कर्ण खरा कोण होता?’, ‘महाभारत एक सूडाचा प्रवास’, ‘कथामृत’।
इनके अलावा कपटनीति, शब्दोत्सव आदि सात पुस्तकें भी लिखीं। गोवा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश, दिल्ली तथा विदेशों में अब तक लगभग 1800 व्याख्यान संपन्न। मराठी अखबारों में स्तंभ-लेखन।