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"संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनके जीवन का संघर्ष बहुधा बाह्यजगत् का संघर्ष है। श्रीराम एवं श्रीकृष्ण भी इनमें शामिल हैं, क्योंकि उनके शत्रु क्रमश: रावण एव कंस बाह्यजगत् में उपस्थित थे। इस सृष्टि में श्रीभरत ही एकमात्र ऐसे महापुरुष हैं, जो अजातशत्रु हैं। बाह्यजगत् में न तो उनका कोई शत्रु है और न ही किसी से कोई संघर्ष। लेकिन भरत के मन में निरंतर एक महासंघर्ष चलता है। भरत का यह संघर्ष नितांत आंतरिक, भावनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक है। उनकी लड़ाई स्वयं से स्वयं की लड़ाई है। इस लड़ाई में जीत एवं हार दोनों का कोई विशेष अर्थ नहीं है क्योंकि इस संघर्ष में जय एवं पराजय स्वयं से ही है। अत: मानव-मन में निरंतर चलने वाले संघर्ष के मनोविज्ञान को समझने के लिए भरत एक आदर्श पात्र हैं।
आज मनुष्य अपनी क्षमताओं एवं बुद्धि-कौशल के बल पर बाह्यजगत् के संघर्षों से निपटने के लिए स्वयं को सक्षम तो बना लिया है मगर मन की उलझन एवं बिखराव से संघर्ष करने के लिए न तो उसके पास क्षमता है और न ही कोई उपाय। ऐसी परिस्थिति में भरत का चरित्र हम सबके लिए एक महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शिका है।
भरत महा महिमा जलरासी’ अर्थात् भरत की महिमा समुद्र के समान अथाह है। मानव के अंतर्द्वंद पर विजय प्राप्त करने के लिए श्रीभरत के चरित्र से बढक़र कोई दूसरा चरित्र नहीं है। स्वयं श्रीराम इस गुण के लिए भरतजी का आश्रय लेते हैं।"