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हम जब भी घर
गए
हम जब भी घर गए
अक्सर उधर गए
पर छत पर चाँद को
बरसों गुज़र
गए
उनको पता भी है कि नहीं
किसको पता है
बुढ़ापे का
सच
सर ऊपर चाँदी उगी,
याददाश्त कमज़ोर
पीठ धनुष जैसी हुई,
कच्ची उम्र की
डोर
कच्ची उम्र की डोर,
दाँत ले रहे
हिलोरें
छू-मंतर मुस्कान,
नज़र हुई कमज़ोर नज़र
गड़ाए
बीवी कहती—हाय!
अभी से तुम
सठियाए।
शिक्षा : आई.आई.टी. दिल्ली से एम.टेक.।
संप्रति : भारतीय रेल में उच्च प्रशासनिक अधिकारी।
प्रकाशित कृतियाँ : ठहाका एक्सप्रेस, बर्फियाँ व्यंग्य की।
विशेष : राष्ट्रीय गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन (लाल किला, दिल्ली), ताज महोत्सव (आगरा), महामूर्ख सम्मेलन (जयपुर), श्रीराम कवि सम्मेलन (दिल्ली), अट्टहास कवि सम्मेलन (गाजियाबाद) समेत देश-विदेश के सैकड़ों प्रतिष्ठित कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ।
सम्मान : काका हाथरसी पुरस्कार (2018), मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार (2015)।
राजभाषा प्रसार के लिए रेल मंत्री द्वारा रजत पदक (2013)
उत्कृष्ट कार्यों के लिए रेल मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार (2005)
ई-मेल : mkgirsme@gmail.com
दूरभाष : 9667758860