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यह गाथा वैदिक युग में अस्थिदान करने वाले दधीचि की नहीं है, बल्कि उस दधीचि की है, जिसे हमने अपनी आँखों देखा, अपने कानों सुना, जिसकी सुदीर्घ राष्ट्र-साधना के हम साक्षी हैं, जिसकी ऊष्मा का हमें स्पर्श मिला। इस दधीचि ने अपने जीवन का तिल-तिल, क्षण-क्षण राष्ट्रीय नवोन्मेष के लिए होम किया, जगह-जगह सर्वांगीण विकास के दीपस्तंभ खड़े किए और अंत में अपनी तपोपूत देह को शोध के लिए दान कर दिया। इस देहदानी दधीचि की पहचान है—नाना देशमुख। सच कहें तो केवल नाना। भले ही उनके माता-पिता ने उन्हें चंडिकादास नाम दिया हो, पर हजारों-हजार परिवार उन्हें स्नेही नाना के रूप में ही देखते-जानते हैं, सचमुच के जगत् नाना।
नानाजी ने ग्रामीण अंचलों को पूर्णत: स्वावलंबी बनाने की एक अनुपम कार्यप्रणाली विकसित की। इसके द्वारा उन्होंने न केवल 100 ग्रामों के आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन पर ध्यान केंद्रित किया अपितु सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का सफल निदान ढूँढ़ने में सफलता पाई। ग्रामीण जीवन की एक जटिल समस्या मुकदमेबाजी से ग्रामीणों की पूर्णत: मुक्ति के साथ, विशेषकर महिलाओं के सशक्तीकरण के साथ-साथ जन-जन के जीवन में भी मूल्य-आधारित बदलाव आया है। हमें विश्वास है, उस महान् आत्मा की पवित्र स्मृति को जीवंत रखते हुए यह पुस्तक देश की युवा पीढ़ी को प्रेरणा एवं मार्गदर्शन प्रदान करती रहेगी।
जन्म 30 मार्च, 1926 को कस्बा कांठ (मुरादाबाद) उ.प्र. में। सन. 1947 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से बी.एस-सी. पास करके सन् 1960 तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता। सन् 1961 में लखनऊ विश्वविद्यालय से एम. ए. (प्राचीन भारतीय इतिहास) में प्रथम श्रेणी, प्रथम स्थान। सन् 1961-1964 तक शोधकार्य। सन् 1964 से 1991 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज में इतिहास का अध्यापन। रीडर पद से सेवानिवृत्त। सन् 1985-1990 तक राष्ट्रीय अभिलेखागार में ब्रिटिश नीति के विभिन्न पक्षों का गहन अध्ययन। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् के ‘ब्रिटिश जनगणना नीति (1871-1941) का दस्तावेजीकरण’ प्रकल्प के मानद निदेशक। सन् 1942 के भारत छोड़ाा आंदोलन में विद्यालय से छह मास का निष्कासन। सन् 1948 में गाजीपुर जेल और आपातकाल में तिहाड़ जेल में बंदीवास। सन् 1980 से 1994 तक दीनदयाल शोध संस्थान के निदेशक व उपाध्यक्ष। सन् 1948 में ‘चेतना’ साप्ताहिक, वाराणसी में पत्रकारिता का सफर शुरू। सन् 1958 से ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक से सह संपादक, संपादक और स्तंभ लेखक के नाते संबद्ध। सन् 1960 -63 में दैनिक ‘स्वतंत्र भारत’ लखनऊ में उप संपादक। त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘मंथन’ (अंग्रेजी और हिंदी का संपादन)।
विगत पचास वर्षों में पंद्रह सौ से अधिक लेखों का प्रकाशन। अनेक संगोष्ठियों में शोध-पत्रों की प्रस्तुति। ‘संघ : बीज से वृक्ष’, ‘संघ : राजनीति और मीडिया’, ‘जातिविहीन समाज का सपना’, ‘अयोध्या का सच’ और ‘चिरंतन सोमनाथ’ पुस्तकों का लेखन।