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१९४२ का समय राजनीतिक उथल-पुथल से परिपूर्ण था, इस संक्रान्तिबेला में तरुण योगी श्रीकृपाल का गोरक्षपीठ में पुनरागमन हुआ, इस बार उन्होंने पूर्ण निर्विकल्प एवं सुस्थिर मन से, स्वयं को गोरक्षपीठ की सेवा के निमित्त, महन्त श्री दिग्विजयनाथजी महाराज के श्रीचरणों में समर्पित कर दिया, वे विधिवत् नाथपन्थ में दीक्षित हुए और श्री अवेद्यनाथ नाम से अलंकृत हुए। मठ के सन्त एवं सेवक उन्हें स्नेह और आदर से छोटे बाबा कहने लगे, और महन्त श्री दिग्विजयनाथ की देशभक्तिपूर्ण विमलविभा, उनकी आध्यात्मिक चेतना और संघर्षमयी कर्मण्यता उनके रोम-रोम में सहज ही समाती गयी, बहुत शीघ्र वे महन्त दिग्विजयनाथजी महाराज की प्रतिमूर्ति, प्रतिकृति या प्रतिरूप बन कर जन-मन में प्रतिष्ठापित हो गए।
भारत की गुरु-शिष्य परम्परा अद्वितीय और अनुपम है। गुरु के सतत सान्निध्य, उसकी सेवा और उसके प्रति समर्पण से, ज्ञानार्जन और आत्मोत्कर्ष की सभी दिशाएँ खुल जाती हैं। श्री अवेद्यनाथजी महाराज ने अपने महान् गुरु के सम्पूर्ण ज्ञान को, अनुभव को, सुचरित्र और सद्गुणों को बहुत शीघ्र आत्मसात कर लिया, नाथपन्थ की परम्परा, योग के गूढ़ रहस्यों एवं आध्यात्मिक अनुभूतियों के साथ भारत के इतिहास, हिन्दू समाज के उत्कर्ष और अपकर्ष की पृष्ठभूमि एवं देश की दुर्दशा के कारणों को उन्होंने भली-भाँति समझा और हिन्दुओं की पुण्यभूमि में हिन्दू-राष्ट्र की स्थापना का, अपने गुरुदेव श्री दिग्विजयनाथ का स्वप्न, उनका अपना स्वप्न बन गया।
हिन्दू समाज में जागृति आयी है। छुआछूत की समस्या बहुत हद तक समाप्त हो चुकी है। धर्माचार्यों के प्रयास से राजनीतिज्ञों में खलबली मच गयी। राजनीतिज्ञों ने जातिवादी खायी को प्रयासपूर्वक बढ़ाया है। अब यह समस्या सामाजिक कम राजनीतिक अधिक है। तथापि हिन्दू समाज में लेशमात्र बची इस समस्या के समूल नाश का प्रयास धर्माचार्यों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं को करते रहना चाहिए। संगठित एवं समरस हिन्दू समाज राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के लिए अपरिहार्य है। हिन्दू समाज की जागृति का परिणाम है कि श्रीराम जन्मभूमि, श्रीरामसेतु जैसे मुद्दों पर सरकारें हिलने लगती हैं। ताल ठोककर धर्मान्तरण करने का साहस अब किसी में नहीं हैं। हिन्दू समाज की आस्था पर चोट करने में राजनीतिज्ञ अब एक बार सोचते अवश्य हैं। जिस दिन हिन्दू समाज संगठित होकर और मुखर हो जाएगा, राष्ट्रीय एकता-अखण्डता, भारतीय संस्कृति के मान बिन्दुओं, हिन्दू समाज की आस्था पर चोट करनेवाली समस्याएँ अधिकतर स्वतः हल हो जाएँगी।
हिन्दुत्व को सही मायने में जब तक सामाजिक व्यवस्था में नहीं उतारा जाएगा, कथनी-करनी में अन्तर समाप्त नहीं किया जाएगा, ऊँच-नीच छुआछूत विहीन समाज की पुनःप्रतिष्ठा नहीं कर ली जाएगी तब तक ऐसे प्रश्न खड़े ही होते रहेंगे। ऐसे प्रश्नों की बिना चिन्ता किये हमें वास्तव में समरस समाज, समतामूलक समाज, सर्वस्पर्शी समाज की पुनर्रचना के भगीरथ प्रयास में लगे रहना होगा। ऐसा हिन्दू समाज जब पुनःप्रतिष्ठित होगा तो प्रश्न उठाने वाले स्वतः चुप हो जाएँगे या उन्हें कोई सुनेगा ही नहीं।